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________________ २३४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् दोषः। न, नियतेरेकस्वभावत्वाभ्युपगमे विसंवादाऽविसंवादादिभेदाभावप्रसक्तेः। अनियमेन नियतेः कारणत्वाद् अयमदोष' इति चेत्, न, अनियमे कारणाभावान्न नियतिरेव कारणम् तत्रापि पूर्ववत् पर्यनुयोगाऽनिवृत्तेः । न च नियतिरात्मानमुत्पादयितुं समर्था स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । न च कालादिकं नियतेः कारणम् तस्य निषिद्धत्वात् । न चाऽहेतुका सा युक्ता नियतरूपताऽनुपपत्तेः । न च स्वतोऽनियता अन्यभावनियतत्वकारणम् शशशृङ्गादेस्तद्रूपताऽनुपलम्भात् । तन्न नियतिरपि प्रतिनियतभावोत्पत्तिहेतुः। * कर्म जगद्वैचित्र्यकारणम् – कर्मवादी * जन्मान्तरोपात्तमिष्टानिष्टफलदं कर्म सर्वजगद्वैचित्र्यकारणमिति कर्मवादिनः। तथा चाहुः - यदि ऐसा कहा जाय कि – 'भोजन से भूखविनाश आदि जो होता है, यह व्यवस्था भी नियतिकृत ही है, नियति ही ऐसी होती है कि भोजन के द्वारा भूखशमन, जलपान के द्वारा तृषाशान्ति, शुभ क्रिया के द्वारा ही शुभ फल, अशुभ क्रिया के द्वारा ही अशुभ फल - ये सब नियति का ही खेल है, अतः व्यवस्थाभंग दोष निरवकाश है।' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि उक्त रीति से ऐसा नियत ही हो कि भोजन के द्वारा भूखशमन आदि हो, तब कभी किसी को भोजन के द्वारा भूखशमन होता है और किसी को नहीं भी होता- इस प्रकार कहीं संवाद तो कभी विसंवाद देखने को मिलता है यह भेद लुप्त हो जायेगा, क्योंकि नियति को तो आप एकस्वभाव ही मान सकते हैं, अर्थात् या तो सर्वत्र संवाद, या तो विसंवाद ही होना चाहिये किन्तु वे दोनों एकस्वभाव नियति से कभी संगत नहीं हो सकेंगे। यदि कहें कि - "नियतिवाद में नियति से सब नियत होता है किन्तु नियति स्वयं अनियत कारण होने से कभी संवाद तो कभी विसंवाद होने में कोई दोष नहीं है।' – तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि यदि नियति अनियत कारणरूप होगी तो उस का मतलब होगा कभी कारण होगी, कभी नहीं भी होगी; अर्थात् 'वही एक कारण होती है' यह नियम नहीं बचेगा। नित्यानित्य विकल्प में भी दोष प्रसक्त होगा। नियति यदि नित्य है तो वह किसी के प्रति कारण नहीं होगी क्योंकि निर्व्यापार होने से नित्य पदार्थ किसी का कारण नहीं बनता। नियति अगर अनित्य होगी तो (उस का भी कारण खोजना पडेगा और) एकान्त अनित्य भाव में कार्यजनन सामर्थ्य न होने से नियति किसी का कारण नहीं हो सकेगी। दूसरी बात, नियति अगर अनित्य होगी तो कार्य भी अवश्य होगी। कार्य उत्पत्तिशील होने से नियति की उत्पत्ति में कौन कारण है यह भी बताना पडेगा। 'नियति ही अनित्यनियति का कारण है' ऐसा उत्तर देंगे तो उस की कारणभूत नियति भी अनित्य होने से उस का कारण बताना पडेगा। इस तरह पुनः पुनः कारणरूप से बतायी जानेवाली नियति के कारण-प्रश्न का अन्त नहीं आयेगा। यदि कहें कि - 'वह खुद ही अपनी उत्पत्ति कर लेगी' - तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि यदि कोई अपनी उत्पत्ति में हेतु बने तो सुशिक्षित नटपुत्र अपने खंधे पर भी चढने की क्रिया कर सकेगा। किन्तु यह शक्य नहीं क्योंकि स्व में तथाविध क्रिया होना विरुद्ध है। नियति को अनित्य मान कर काल को उस का कारण बताया जाय तो वह शक्य ही नहीं क्योंकि आप तो नियति से अतिरिक्त किसी को भी कारण मानने के लिये तय्यार नहीं। उस को निर्हेतुक मानना उचित नहीं है क्योंकि निर्हेतुक होने पर उस का नियतस्वरूप ही अनियत बन जायेगा। स्वयं अनियत बन जाने पर वह अन्य पदार्थों को नियत करने में सक्षम नहीं रहेगी। शशशृंग जो कि सदा के लिये अनियत है वह किसी भी पदार्थ को नियत करने में सक्षम नहीं है। निष्कर्ष- नियति ही मात्र नियताकार पदार्थों की उत्पत्ति का एक मात्र कारण नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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