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________________ २३३ पञ्चमः खण्डः - का० ५३ * एकान्तनियतिकारणवादिमतनिरूपणम् * सर्वस्य वस्तुनः तथा तथा नियतरूपेण भवनाद् नियतिरेव कारणमिति केचित् । तथाहि - तीक्ष्णशस्त्राद्युपहता अपि तथामरणनियतताऽभावे जीवन्त एव दृश्यन्ते नियते च मरणकाले शस्त्रादिघातमन्तरेणापि मृत्युभाज उपलभ्यन्ते । न च नियतिमन्तरेण स्वभावः कालो वा कश्चिद् हेतुः, यतः कण्टकादयोऽपि नियत्यैव तीक्ष्णादितया नियताः समुपजायन्ते न कुण्ठादितया । कालोऽपि शीतादेर्भावस्य तथानियततयैव तदा तदा तत्र तत्र तथा तथा निर्वर्तकः। तथा चोक्तम् - 'प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने नाऽभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः।। ( ) इत्यादि । ___* एकान्तनियतिवादनिरसनम् * असदेतत् – शास्त्रोपदेशवैयर्थ्यप्रसक्तेः तदुपदेशमन्तरेणापि अर्थेषु नियतिकृतत्वबुद्धेर्नियत्यैव भावात्, दृष्टाऽदृष्टफलशास्त्रप्रतिपादितशुभाशुभक्रियाफलनियमाभावश्च । अथ तथैव नियतिः कारणमिति नायं * एकमात्र नियति ही सृष्टिमात्र का कारण - एकान्तवादी * कुछ पण्डितों का कहना है – हर कोई चीज अपने अपने नियत स्वरूप में ही होती रहती है यह प्रभाव नियतितत्त्व का है इस लिये सिर्फ नियति ही एक मात्र सारे विश्व का कारण है। देखिये - जब नियति मरणानुकुल नहीं होती तब मनुष्य विष खा ले या तीक्ष्ण शस्त्र से घायल हो जाय फिर भी जीन्दा ही रहता है। दूसरी ओर जब नियतितत्त्व मरणानुकुल रहती है तब शस्त्रादि की चोट के विना भी हृदय बंध पड जाता है और आदमी मर जाता है। इस से यही फलित होता है कि एकमात्र नियतितत्त्व ही कारण है; स्वभाव या काल कहीं भी कारण नहीं है। नियति का ही यही प्रभाव है कि कण्टकादि भी तीक्ष्णतादिनियत आकार से ही उत्पन्न होता है न कि स्थूल-कुण्डादि आकार से। गर्मी के बाद बारीश की मौसम, उस के बाद ठंडी की मौसम, उस के बाद पुनः गर्मी की मौसन इस तरह से काल भी नियति से नियन्त्रित हो कर ही समय समय पर स्थान स्थान में सर्दी आदि घटनाओं को अपने अपने नियतरूप से प्रगट करता है। कहा है - __“नियति के प्रभाव का आसरा ले कर जो पदार्थ प्राप्त होने वाला है वह प्राप्त होकर ही रहता है चाहे वह शुभ हो या अशुभ । कोई भी जीव चाहे कितनी भी कोशिश करे, जो नहीं होगा सो नहीं होगा और जो अवश्यंभावी है उस का विघात नहीं होगा।" * एकान्तनियतिकारणवाद में निष्फलताएँ * नियतिवादियों का यह विधान गलत है। यदि नियतिवाद का स्वीकार किया जाय तो शास्त्रोपदेश सब निरर्थक बन जायेगा क्योंकि शास्त्र का उपदेश सुन कर भी नियति में तो कोई परिवर्तन होने वाला है नहीं। यदि कहें कि - यह सब नियतिजन्य ही है ऐसा ज्ञान सम्पादन करने में शास्त्रोपदेश सफल होगा - तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि वैसा ज्ञान सम्पादन भी नियति आधीन होने से नियति द्वारा ही हो जायेगा। उपरांत, व्यवस्थाभंग का दोष इस तरह होगा - भोजन से भूखविनाश और जलपान से तृषाशान्ति होती है यह सर्वजनों को दृष्टिगोचर होता है किन्तु उस को असत्य मानना होगा। एवं अधिक भोजनादि से अज्ञात बिमारी, उदा० अर्बुदादि रोग होता है यह भी असत्य ठरेगा। तथा, शास्त्रों में जो शुभ क्रियाओं का शुभ फल, अशुभ क्रियाओं का अशुभ फल बताया गया है उस नियम का भी भंग प्रसक्त होगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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