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पञ्चमः खण्डः का० ५३
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यद् भवति तत्तस्य कारणमतिप्रसङ्गात्, कारणत्वाभ्युपगमे स्वाभ्युपगमव्याघातात् । न च प्रमाणात् प्रमेयप्रभवः अपि तु प्रमेयात् प्रमाणस्य, अन्यथा तेन तद्ग्रहणाऽयोगात् । न च प्रमाणमप्रतिबद्धमपि अर्थसत्तानिवर्त्तकमतिप्रसङ्गात् गोनिवृत्तावश्वनिवृत्तिप्रसक्तेः ।
किञ्चानुपलब्धिर्हेतुत्वेनोपादीयमाना स्वोपलम्भनिवृत्तिरूपा वोपादीयेत, सर्वपुरुषोपलम्भनिवृत्तिस्वभावा वा ? तत्र न तावद् आद्यः पक्षः, खलबीलाद्यन्तर्गतस्य बीजादेः स्वोपलम्भनिवृत्तावपि सत्ताऽनिवृत्तेर्हेतोरनैकान्तिकत्वात्। अथ द्वितीयः पक्षः सोऽपि न युक्तः हेतोरसिद्धेः । न हि मयूरचन्द्रकादेः सर्वपुरुषैरदुष्टं कारणं नोपलभ्यत इत्यर्वाग्दृशा निश्चेतुं शक्यम् । किञ्च, 'निर्हेतुका भावा:' इत्यत्र हेतु - रुपादीयते आहोस्विद् नेति ? यदि नोपादीयते तदा न स्वपक्षसिद्धिः प्रमाणमन्तरेण तस्या अयोगात् । अथ हेतुरुपादीयते तदा स्वाभ्युपगमविरोधः प्रमाणजन्यतया स्वपक्षसिद्धेरभ्युपगमात्। तदुक्तम्
वही उस का व्यापक हो सकता है । प्रमाण और अर्थसत्तास्वरूप प्रमेय, दोनों का भेदमुखी प्रतिभास होने से उन में भेद सिद्ध है, अभेद नहीं । कारण की निवृत्ति से भी कार्य की निवृत्ति होती है, किन्तु प्रमाण कोई अर्थसत्ता का कारण नहीं है, ( कारणसत्ता का तो आप खंडन कर रहे हैं, ) कि जिस से प्रमाण की निवृत्ति से अर्थसत्ता ( कार्य ) की निवृत्ति दिखाई जा सके। बहुत से ऐसे पदार्थ है जो दूर देश में रहे हैं और चिर अतीत या चिर भविष्य काल के पदार्थ काल विप्रकृष्ट हैं वे अपने प्रमाण के विषय नहीं होते, फिर भी वे सत्ता में होने में कोई विरोध नहीं है ।
देश-काल विप्रकृष्ट पदार्थों की सत्ता प्रमाण के विना भी हो सकती है। एक पदार्थ जब दूसरे किसी पदार्थ विरह में भी मौजूद रह जाय तो उस दूसरे पदार्थ को एक पदार्थ का कारण नहीं कह सकते हैं । अन्यथा, धेनु के विरह में अश्व के रह जाने पर भी धेनु को अश्व का कारण मानना होगा । सच तो यह है कि यदि आप प्रमाण को सत्ता का कारण मान लेंगे तब तो अपने निर्हेतुकता के सिद्धान्त पर ही कुठाराघात हो जायेगा । कहीं भी प्रमेय की सत्ता प्रमाणसत्ता को अधीन नहीं होती किन्तु प्रमाण की सत्ता प्रमेय को अधीन होती है। अगर इस से उलटा ही मानेंगे तो प्रमाण (कारण) प्रमेय का ग्राहक ही नहीं रहेगा । अर्थसत्ता के साथ प्रमाण की व्याप्ति (प्रतिबन्ध) है ही नहीं कि जिस से प्रमाण की निवृत्ति से अर्थसत्ता की निवृत्ति कही जा सके । व्याप्ति के विना भी अगर वैसा मानेंगे तब तो धेनु के न रहने पर अश्व की निवृत्ति मानने के लिये बाध्य होना पडेगा ।
* अनुपलब्धि हेतु दोनों विकल्पों में
असमर्थ
यह भी स्वभाववादी को सोचना चाहिये कि जिस कारणसत्ता की अनुपलब्धि को आप हेतु कर रहे हैं वह सिर्फ आप को उपलब्धि नहीं हुई इसलिये या फिर किसी को भी उपलब्धि नहीं होती इसलिये ? किसी को कभी घास के ढेर में या बील में छिपी हुई बीजादि वस्तु की उपलब्धि न हो, तो इतने मात्र से वहाँ बीजादि की सत्ता शून्य नहीं हो जाती । अतः आप की अनुपलब्धि अनैकान्तिक होने से कारणसत्ता के अभाव का साधन नहीं कर सकती । द्वितीय पक्ष भी अनुचित है क्योंकि तब अनुपलब्धि हेतु ही स्वरूपतः असिद्ध बन जायेगा । उदा० मोरपीच्छ में जो चन्द्रक होता है उस का कारण हम लोगों को उपलब्ध न हो, उस का यह मतलब नहीं है कि वह किसी को भी उपलब्ध नहीं है, क्योंकि हम अल्पज्ञ हैं इसलिये वैसा निश्चय करने के लिये अशक्त हैं। अतः सर्वजन अनुपलब्धि को हेतु किया जाय तो वह असिद्ध ही रहेगा ।
यह भी प्रश्न है कि भाव को निर्हेतुक सिद्ध करने के लिये आप किसी हेतु का आसरा लेंगे या नहीं ? यदि नहीं, तो आप की इष्टसिद्धि यानी भाव के निर्हेतुकत्व की सिद्धि नहीं होगी, क्योंकि प्रमाण के वा
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