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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम त्वस्य, नियतदेशतया च तेषां वृत्तिरध्यक्षत एव सिद्धेति कथं न तत्कार्यतावगतिः ?
यदपि 'कादाचित्कत्वात्' इति साधनम् तदपि विरुद्धम्, साध्यविपर्ययसाधनादहेतोः कादाचित्कत्वानुपपत्तेः। साध्यविकलश्च दृष्टान्तः अहेतुकत्वस्य तत्राप्यभावात् । एवमनुपलभ्यमानसत्ताकं भावानां कारणमिति हेतोरसिद्धता प्रतिज्ञायाश्च प्रत्यक्षविरोधो व्यवस्थितः।
सिद्धत्वेऽपि चास्य हेतोरनैकान्तिकत्वम् । तथाहि – यद्यनुपलम्भमात्रं हेतुत्वेनोपादीयते तदा प्रमाणाभावात् कारणसत्ताभावाऽसिद्धेः कथं नानैकान्तिकता ? तथाहि – कारणं व्यापकं वा निवर्तमानं कार्यं व्याप्यं वाऽऽदाय निवर्त्तते । न च प्रमाणमर्थसत्ताया व्यापकं वृक्षत्ववत् शिंशपायाः अभिन्नस्यैव व्यापकत्वात् । न च प्रमाण-प्रमेययोरभेदः भिन्नप्रतिभासविषयत्वात् । नापि प्रमाणं कारणमर्थस्य व्यभिचारात्, देशकालादिविप्रकृष्टानां भावानां प्रमाणाऽविषयीकरणेऽपि सत्ताऽविरोधात् । न च यदन्तरेणाऽपि कण्टक देश और कण्टक की तीक्ष्णतावाले नियतकाल को छोड कर अन्य देश-काल में तीक्ष्णता नहीं होती किन्तु नियत देश-काल में ही वह दृष्टिगोचर होती है यह नहीं घट सकेगा, क्योंकि आप तीक्ष्णता को नियतदेशकाल से निरपेक्ष ही मानते हैं। अतः देश-काल निरपेक्ष होने पर, कण्टक की तीक्ष्णता जैसे कण्टक के देश-काल में होती है वैसे कण्टक भिन्न देश-काल में भी होनी चाहिये। किन्तु वैसा तो दृष्टिगोचर नहीं होता। अतः यह सिद्ध होता है कि नियत देश-काल में उत्पन्न होने वाले कण्टक और उस की तीक्ष्णता आदि देश-कालसापेक्ष होते हैं। सापेक्ष होने से ही वे देशकालजन्य हैं यह भी फलित हो जाता है, क्योंकि तत्सापेक्षभाव ही तत्कार्यत्व का लक्षण है। जब कण्टक-तीक्ष्णतादि की प्रवृत्ति नियतदेश में ही दृष्टिगोचर होती है तो फिर कण्टकादि में नियत देश जन्यता कैसे नहीं होगी ? __पहले निर्हेतुकता की सिद्धि के लिये स्वभाववादी ने जो कादाचित्कत्व को साधनरूप में प्रस्तुत किया था, वह विरुद्ध है क्योंकि नियतकालता हेतु तो उलटा सहेतुकत्व को सिद्ध करता है, जो हेतुजन्य नहीं होता वह कभी भी नियतकालीन नहीं होता। और यहाँ जो कण्टकादि की तीक्ष्णता आदि को दृष्टान्त के रूप में कहा गया है वह साध्यशून्य है, क्योंकि उस में भी निर्हेतुकत्व साध्य कैसे नहीं है वह अभी ही कह दिया है। निष्कर्ष यह है कि पहले जो स्वभाववादी ने कारण को 'असत्'-व्यवहार-योग्य सिद्ध करने के लिये कारण की सत्ता की अनुपलब्धि को हेतु किया था वह अब असिद्ध बन जाता है। बीजादि की सत्ता तो प्रत्यक्षगोचर है ही, अतः प्रतिज्ञा में प्रत्यक्ष विरोध भी सुश्लिष्ट है।
____* कारण-अनुपलम्भ हेतु अनैकान्तिक * यदि किसी तरह कारण-सत्ता की अनुपलब्धिरूप हेतु को कैसे भी सिद्ध मान लिया जाय, तथापि वहाँ साध्यद्रोह का दोष तो होगा ही। देख लीजिये- आप कारणसत्ता की अनुपलब्धि से कारणसत्ता के अभाव को सिद्ध करना चाहते हैं तब विचार का निष्कर्ष यह फलित होगा कि कारणसत्तानुपलब्धि कारणसत्ताशून्यता की व्यापक न होने से वह कारणसत्ताशून्यता (रूप साध्य) का द्रोह करनेवाली है। अनुपलब्धि हर हमेश प्रमाणपंचकअभाव स्वरूप ही होती है। वह कारणसत्ताशून्यता को सिद्ध करने में समर्थ नहीं है इस लिये अनैकान्तिक बन जाती है। कैसे ? देखिये - जहाँ कारण अथवा व्यापक कहीं नहीं रहता तब कार्य अथवा व्याप्य भी वहाँ नहीं रहता – इस को कारण या व्यापक की निवृत्ति से कार्य अथवा व्याप्य की निवृत्ति कहा जाता है। प्रमाण कोई पदार्थसत्ता का व्यापक नहीं है जिस से कि उस की निवृत्ति से कारणसत्ता की निवृत्ति मानी जा सके। वृक्षत्व सीसम से अभिन्न होने से व्यापक होता है वैसे जो जिस से अभिन्न हो
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