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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अनुमानतस्तत् तेषां सिद्धमेव । तथाहि – यत् कादाचित्कं तद् निर्हेतुकम् यथा कण्टकादेस्तैक्ष्ण्यम् कदाचित्कं च सुखादिकमिति स्वभावहेतुः । न च यस्य भावाऽभावयोर्नियमेन यस्य भावाभावौ तत्तस्य कारणम्, व्यभिचारात् । तथाहि – स्पर्शसद्भाव एव चक्षुर्विज्ञानम् तदभावे न तत् कदाचित्, न च स्पर्शः तत्कारणम् । तनैतत् कारणभावलक्षणम् व्यभिचारित्वात् । अतः सर्वहेतुनिराशंसं जन्म भावनामिति सिद्धम् ।
* एकान्तस्वभावकारणवादनिरसनम् * असदेतत् – कण्टकादितैक्ष्ण्यादेरपि निर्हेतुकत्वाऽसिद्धेः। तथाहि - अध्यक्षाऽनुपलम्भाभ्यामन्वयव्यतिरेकतो बीजादिकं तत्कारणत्वेन निश्चितमेव । यस्य हि यस्मिन् सत्येव (यस्य ?) भावः यस्य च विकाराद् यस्य विकारः तत् तस्य कारणमुच्यते । उत्सूनादिविशिष्टावस्थाप्राप्तं च बीजं कण्टकादितैक्ष्ण्यादेरन्वयव्यतिरेकात् अध्यक्षानुपलम्भाभ्यां कारणतया निश्चितमिति 'अनुपलभ्यमानसत्ताकं च कारणम्' इत्यसिद्धो हेतुः। यदपि 'कार्यकारणभावलक्षणं व्यभिचारि' इत्युक्तम्, तदपि असिद्धम् स्पर्शस्यापि रूपहेतुतया चक्षुर्विज्ञाने निमित्ततयेष्टत्वात् तमन्तरेण रूपस्यैव विशिष्टावस्थस्याऽसम्भवात् । अभ्यन्तर पदार्थ निर्हेतुक है ऐसा कैसे सिद्ध हुआ ? – ऐसी शंका गलत है क्योंकि अभ्यन्तर दुखादि पदार्थो का बाह्य प्रत्यक्ष न होने के कारण उन के निर्हेतुक होने का निर्णय प्रत्यक्ष से यद्यपि न हो सके किन्तु अनुमान से वैसा सिद्ध हो सकता है। देख लो – जो भी अल्पकालीन होता है वह निर्हेतुक होता है जैसे कण्टकों की तीक्ष्णता. सखादि भी अल्पकालीन ही होते हैं। यहाँ अल्पकालीनतारूप स्वभाव को हेत किया गया है। यदि 'जिस के होने पर जो अवश्य होता है और न होने पर नहीं होता' वही उस का कारण माना जाय तो वह उचित नहीं है क्योंकि वैसा अन्वय-व्यतिरेक होने पर भी कहीं कारणता नहीं मानी जाती। उदा० स्पर्श के रहते ही वस्तु के रूप का चाक्षुष दर्शन होता है और स्पर्श के न रहने पर वह नहीं होता - इतना होते हुए भी स्पर्श को दर्शन का हेतु नहीं माना जाता। अतः अन्वय-व्यतिरेक कोई कारणता के लक्षण नहीं हैं क्योंकि वे कारणता के अविनाभावी नहीं है। आखिर यही सिद्ध होता है कि पदार्थों की उत्पत्ति किसी भी हेतु की आशंसा रखती नहीं है।
* कण्टकादि की तीक्ष्णता भी सहेतुक - उत्तरपक्ष * स्वभाववादियों का यह बयान गलत है। कण्टक आदि की तीक्ष्णता आदि निर्हेतुक होती है यह कहाँ सिद्ध है ? प्रत्यक्षावलम्बित अन्वय और अनुपलम्भ पर अवलम्बित व्यतिरेक के बल पर यह सिद्ध होता है कि बीज ही कण्टक की तीक्ष्णता का कारण है। जिस के होने पर जो निश्चित रहता है और जिस के विकार से जिस में विकृति प्रसरती है वह उस का कारण कहा जाता है; 'इस के होने पर यह है' ऐसा अन्वय का प्रत्यक्ष और 'इस के न होने पर भी नहीं है' इस प्रकार व्यतिरेकमुख दृश्यानुपलम्भ कारणता का ग्राहक होता है। तन्तु यदि पुराने होने से दुर्बलता के विकार से ग्रस्त हैं तो उन से उत्पन्न होने वाले वस्त्र में भी दुर्बलतारूप विकृति मौजूद रहती है अतः तन्तु वस्त्र के कारणरूप में सिद्ध होते हैं। इसी तरह प्रस्तुत में, उत्सून यानी कुछ अंकुरित अवस्थाप्राप्त बीजविशेष के रहने पर ही कण्टक में तीक्ष्णता का प्रादुर्भाव होता है यह अन्वय प्रत्यक्षसिद्ध है और तथाविध बीजविशेष के न रहने पर कण्टक में तीक्ष्णता नहीं होती यह व्यतिरेक भी दृश्यानुपलम्भ से सिद्ध है – इस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ के बल पर कण्टकादि की
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