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पञ्चमः खण्डः का० ५३
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उत्पन्नानां तु स्वभावसंगतावपि प्राक् स्वभावाऽभावेऽपि उत्पत्तेर्निर्वृत्तत्वाद् न स्वभावस्तत्र कारणं भवेत् । B अथ 'कारणमन्तरेण भावा भवन्ति स्व-परकारणनिमित्तजन्मनिरपेक्षतया सर्वहेतुनिराशंसस्वभावाः भावाः । तथा चात्र स्वभाववादिभिर्युक्तिः प्रदर्श्यते – यदनुपलभ्यमानसत्ताकं तत् प्रेक्षावतामसद्व्यवहारविषयः यथा शशशृंगम्, अनुपलभ्यमानसत्ताकं च भावानां कारणमिति स्वभावानुपलब्धिः । न चायमसिद्धो हेतुः कण्टकादितैक्ष्ण्यादेर्निमित्तभूतस्य कस्यचिदध्यक्षादिनाऽसंवेदनात् । तदुक्तम्
कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां वा ।
स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ? ।। ( )
अथापि स्यात् भवतु बाह्यानां भावानां कारणानुपलब्धेरहेतुकत्वम् आध्यात्मिकानां तु कुतो निर्हेतुकत्वसिद्धिः ? असदेतत् यतो यदि नाम दुःखादीनामध्यक्षतो निर्हेतुकत्वमसिद्धं तथापि
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* एकान्त स्वभावकारणवाद की समीक्षा *
स्वभाववादियों का कहना है कि प्रत्येक वस्तु अपने अन्तरंग स्वभाव से ही उत्पन्न होती है । यहाँ विमर्श करना जरूरी है कि 'स्वभाव से' इस का मतलब क्या है। A यदि इस का अर्थ यह हो कि स्व यानी अपना, भाव यानी अस्तित्व (सत्ता) यही कारण हो भावमात्र का तो इस का फलितार्थ यह होगा कि प्रत्येक भाव 'स्वभाव से' यानी अपनी ही सत्ता से, यानी अपने से ही उत्पन्न होता है । ऐसा मानने पर 'स्व वस्तु क्रियाविरोध' संज्ञक दोष होगा । कोई भी पदार्थ अपनी उत्पत्ति पहले सत्ताशून्य होने के नाते उस में अपनी उत्पत्ति के लिये किसी भी क्रिया का होना विरुद्ध है । कोई भाव स्वयं स्व को उत्पन्न करने लग जाय यह प्रमाणविरुद्ध है। जब तक वह उत्पन्न नहीं है तब वहाँ 'स्वभाव' (स्व की सत्ता ) विद्यमान ही नहीं है। हाँ, उत्पन्न होने के बाद उस में 'स्व - भाव' का होना जचता है, लेकिन स्वभावमात्रकारणवादी को यहाँ यह समस्या होगी कि भाव तो उत्पत्ति के पहले स्वभावात्मक कारण से शून्य होने पर भी उस की उत्पत्ति तो सिद्ध हो गयी, अब पीछे उस में आया हुआ स्वभाव पूर्वकालीन उत्पत्ति का कारण कैसे बनेगा ?!
* कोई कारण न होना ऐसा स्वभाव
पूर्वपक्ष
B ऐसा कहा जा सकता है भाव कभी भी स्वात्मक या परात्मक - कारण या निमित्त के जन्म (यानी सत्ता) का गुलाम नहीं होता । भाव का यही स्वभाव है कि किसी भी हेतु की आशंसा नहीं रखता। इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिये स्वभाववादी इस तरह युक्तिप्रदर्शन करते हैं "जिस की सत्ता उपलब्ध नहीं होती उस का व्यवहार, बुद्धिमान लोग असत् के रूप में करते हैं, जैसे कि खरगोश के सींग का । भावों के कारण की सत्ता भी उपलब्ध नहीं होती, इस लिये उस का व्यवहार भी 'असत्' के रूप में होना उचित है। यहाँ ‘असत्' व्यवहार के विषय का स्वभाव है सत्ता, उस की अनुपलब्धि को हेतु किया गया है। हेतु असिद्ध नहीं है, क्योंकि कण्टकादि की तीक्ष्णता आदि का कोई भी हेतु कहीं भी किसी को प्रत्यक्षादि से दृष्टिगोचर नहीं होता । कहा है ‘“किसने कण्टकों में तीक्ष्णता को जन्म दिया ? पशु और पंछीयों में जो अनेक विचित्रताएँ हैं, किसने किया ? यह सब स्वभाव से ही जन्मप्राप्त है ? यहाँ किसी की इच्छा का महत्त्व ही नहीं है, तो प्रयत्न की तो बात ही कहाँ ?'
* बाह्य-अभ्यन्तर पदार्थमात्र निर्हेतुक - पूर्वपक्ष
यदि शंका करें कि बाह्य पदार्थों का तो कोई कारण उपलब्ध न होने से वे निर्हेतुक होंगे, लेकिन
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