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________________ २२६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् स्वभावभेदाद् भेदसिद्धेः। न च ग्रहमण्डलादिकृतो वर्षादेर्विशेषः, तस्यापि अहेतुकतयाऽभावात् । न च काल एव तस्य हेतुः, इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः – सति कालभेदे वर्षादिभेदहेतोर्ग्रहमण्डलादेर्भेदः तद्भेदाच्च कालभेद इति परिस्फुटमितरेतराश्रयत्वम् । अन्यतः कारणाद् वर्षादिभेदे न काल एव एकः कारणं भवेद् – इत्यभ्युपगमविरोधः । कालस्य च कुतश्चिद् भेदाभ्युपगमे अनित्यत्वमित्युक्तम् । तत्र च प्रभव-स्थिति-विनाशेषु यद्यपरः कालः कारणम्, तदा तत्रापि स एव पर्यनुयोग इत्यनवस्थानाद् न वर्षादिकार्योत्पत्तिः स्यात् । न चैकस्य कारणत्वं युक्तम् क्रम-योगपद्याभ्यां तद्विरोधात् । तन्न काल एव एकः कारणं जगतः। * स्वभावैकान्तवादविन्यास-निरसने * अपरे तु – ‘स्वभावत एव भावा जायन्ते' इति वर्णयन्ति । अत्र यदि A ‘स्वभावकारणा भावाः' इति तेषामभ्युपगमस्तदा स्वात्मनि क्रियाविरोधो दोषः। न ह्यनुत्पन्नानां तेषां स्वभावः समस्ति । कारण वृष्टि का है जिस के न होने से बारीश नहीं होती। यदि ऐसा कहें कि - 'बारिश का न होना यह भी कुछ तथाविधपरिस्थितिविशिष्ट काल का ही कार्य है। भिन्न भिन्न कालविशेष ही वृष्टि और अवृष्टि का कारण है।' - ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि काल नित्यएकस्वरूप होता है - उस में कोई विशेष भेद नहीं होता। यदि उस में विशेषभेद मान लेंगे तो उस में वृष्टिजननस्वभाव और वृष्टिनिरोधस्वभाव ऐसे दो विरुद्धस्वभाव प्रविष्ट होने से, काल में भी भेद प्रसक्त होगा और उस के नित्यत्व का भंग हो जायेगा। यदि ऐसा कहें कि - काल के होते हुए भी कभी ग्रहमण्डल (ज्योतिषचक्र) की विशिष्ट स्थिति से वृष्टिपात नहीं होता। मतलब, कार्यहेतु काल ही है और ग्रहमण्डल कार्याभाव का प्रयोजक है। - किन्तु यह ठीक नहीं, क्योंकि ग्रहमण्डल नित्य होने से एकस्वभाव रहता है, अतः उस में पलटा लाने वाला कोई हेतु न होने से कोई विशेष स्थिति के पलटने से वृष्टि-अभाव का कथन युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि उस के अनुकुल-प्रतिकुल स्थितिविशेष में कोई हेतु ही नहीं है। यदि कहें कि ग्रहमण्डल के स्थितिभेद में काल ही हेतु है - तो यहाँ अन्योन्याश्रय दोष-प्रवेश होगा। काल नित्य एक स्वभाव होने से ग्रहमण्डलादि में किसी भेद का प्रयोजक तभी हो सकता है जब काल में ही कुछ भेद सिद्ध हो जाय; जब वर्षादिभेदप्रयोजक ग्रहमण्डलादि में भेद सिद्ध होगा तब कालभेद सिद्ध होगा - इस तरह इतरेतराश्रय दोष स्पष्ट है। यदि वर्षादिभेद में काल से अतिरिक्त किसी ग्रहमण्डलादि को हेतु मानेंगे तो 'काल ही एक मात्र कारण होता है' इस सिद्धान्त का विरोध प्रसक्त होगा। तथा, किसी ग्रहमण्डलादि से यदि कालभेद स्वीकार करेंगे तो काल में स्वभावभेद से भेद यानी अनित्यता प्रविष्ट होगी। काल अनित्य होने पर, उस में भी उत्पाद-विनाश और स्थिति को मानना होगा। यदि उस के उत्पादविनाश और स्थिति में अन्य काल को कारण बतायेंगे तो वहाँ भी पूर्ववत् वृष्टि आदि भेद के प्रश्नों का आवर्तन होने पर पुनः द्वितीय काल के उत्पादादि के लिये तृतीय-चतुर्थ... ऐसे काल की कल्पना का अन्त नहीं आयेगा। फलस्वरूप, बारीश आदि कार्यों का जन्म ही असम्भव हो जायेगा, क्योंकि जब तक काल के ही उत्पादादि की स्थिर व्यवस्था न हो सके, वर्षा आदि की उत्पत्ति का तो अवसर ही कब आयेगा। तथा किसी एक ही पदार्थ को कारण मानना विकल्पसंगत नहीं है। यदि एक पदार्थ क्रमशः कार्य करेगा तो स्वभावभेद प्रसक्त होने से एकत्व का भंग होगा। यदि एक पदार्थ एक साथ एक क्षण में सभी कार्य कर डालेगा, तो दूसरे क्षण में निष्क्रिय यानी अर्थक्रियाकारित्व से शून्य हो जाने से 'असत्' हो जायेगा, इस प्रकार विरोध प्रसक्त होने के कारण एक मात्र काल को सारे जगत् का कारण मानना युक्तिसंगत नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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