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________________ पञ्चमः खण्डः का० ५३ २२५ काल-स्वभाव-नियति- पूर्वकृत- पुरुषकारणरूपा एकान्ताः सर्वेऽपि एकका मिथ्यात्वम् । त एव समुदिताः परस्पराऽजहद्वृत्तयः सम्यक्त्वरूपतां प्रतिपद्यन्ते इति तात्पर्यार्थः ॥ * कालैकान्तवादनिरसनम् तत्र काल एवैकान्तेन जगतः कारणमिति कालवादिनः प्राहुः । तथाहि सर्वस्य शीतोष्णवर्ष-वनस्पति-पुरुषादेर्जगतः प्रभव- स्थिति - विनाशेषु महोपरागयुतियुद्धोदयास्तमयगतिगमनागमनादौ च कालः कारणम् तमन्तरेण सर्वस्याऽस्याऽन्यकारणत्वाभिमतभावसद्भावेऽप्यभावात् तत्सद्भावे च भावात् । - - तदुक्तम् ( महाभा० आदिपर्व अ० १ श्लो० २७३-२७५) कालः पचति भूतानि, काल संहरति प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ॥ असदेतत् -- तत्कालसद्भावेऽपि वृष्ट्यादेः कदाचिददर्शनात् । न च तदभवनमपि तद्विशेषकृतमेव, नित्यैकरूपतया तस्य विशेषाभावात् । विशेषे वा तज्जननाऽजननस्वभावतया तस्य नित्यत्वव्यतिक्रमात् जब कि उन सब को सम्मीलित कारण मानने में सम्यक्त्व है ॥५३॥ तात्पर्यार्थ यह है कि विश्व की समस्त घटनाओं के पीछे एक मात्र काल को ही स्वतन्त्र कारण रूप में बताना इस में मिथ्यात्व है । तथैव, एक मात्र स्वभाव को, एकमात्र भवितव्यता को एक मात्र भाग्य को, या एकमात्र पुरुषार्थ को ही क्रमशः स्वतन्त्र कारण मान लेने में भी मिथ्यात्व है । कर ही हर किसी कार्य के कारण होते हैं, परस्पर एक-दूसरे का त्याग किये बिना मिल कारणभाव को धारण करते हैं । निष्कर्ष इन पाँचों की समुदित सामग्री से ही किसी भी हो सकता है । सब समुदित हो कर ही वे सम्यक् कार्य का उत्पाद - ― * काल ही समस्तकार्यों का कारण - एकान्तवाद यहाँ कालवादियों का मत ऐसा है कि सारे जगत् का एक मात्र कारण काल ही है अन्य कुछ नहीं । स्पष्ट है कि ठंडी-गर्मी-बारिश - पेडपत्ती अथवा पुरुष - महिला आदि सम्पूर्ण जगत् का सर्जन - विसर्जन अथवा अवस्थान का एक मात्र कारण काल ही होता है । तथा, चन्द्र-सूर्यग्रहण, विविध ग्रहों की युति, राजादि में परस्पर युद्ध, सूर्यादि ग्रहों के नियमित उदय अस्त ग्रहों की गति और जड़-चेतन के गमन - आगमन आदि विविध घटनाओं का भी एकमात्र कारण काल ही होता है । यदि स्वभाव आदि अन्य तत्त्वों को जगत् का कारण माना जाय और काल को छोड दिया जाय तो यह असम्भव है क्योंकि बीज में विशाल वटवृक्ष बनने का स्वभाव आदि अन्य कारणों के रहते हुए भी जब तक २० - २५ वर्ष प्रमाण काल का सहयोग न मिले तब तक कोई भी बीज से वृक्ष नहीं हो सकता । दूसरी ओर काल के प्रभाव से सब कुछ बन आता है । महाभारत में भी व्यास ने यही कहा है कि Jain Educationa International भूतों का परिपाक काल से होता है, प्रजा का संहार भी काल से होता है । जब अन्य सब निष्क्रिय या निष्फल यानी सुषुप्त रहते हैं तब भी एक मात्र काल ही सजाग रहता है । काल का अतिक्रमण करना दुष्कर है || * सृष्टि का कारण एक मात्र काल नहीं कालवादी का यह बयान गलत है । वर्षाऋतु बारीश का काल होने पर भी कभी कभी वर्षाऋतु में देखते हैं कि बारीश का एक बुंद भी नहीं गिरता । इस से यह सिद्ध होता है कि काल के अलावा और भी कोई For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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