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________________ २२४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् सत्ता' ( ) इति वचनात् । ततः सदादिरूपतया उपलभ्यमानत्वाद् घटस्य तेभ्योऽभिन्नरूपताऽभ्युपगन्तव्या प्रमेयव्यवस्थितेः प्रमाणनिबन्धनत्वात् । ___ यत् पुनः पृथुबुध्नोदराद्याकारतया पूर्वं सदादिर्न आसीत् ततोऽसौ अन्यस्तेभ्यो घटरूपतया प्राक् सदादेरनुपलम्भात्, प्रागपि तद्रूपस्य सदादौ सत्त्वेऽनुपलम्भाऽयोगात्, दृश्यानुपलम्भस्य चाऽभावाऽव्यभिचारित्वात्, तदतद्रूपतायाश्च विरोधाभावात् प्रतीयमानायां तदयोगात्, अबाधितप्रत्ययस्य च मिथ्यात्वाऽसम्भवाद्, बाधाविरहस्य च प्रागेवोपपादितत्वात् ॥५२॥ सदायेकान्तवादवत् कालायेकान्तवादेऽपि मिथ्यात्वमेवेत्याह - कालो सहाव णियई पुवकयं पुरिसकारणेगंता । मिच्छत्तं ते चेव समासओ होंति सम्मत्तं ॥५३॥ पायेगा । दूसरी ओर, सत्-द्रव्यादि को यदि घटआदि विशेष आकारों से अत्यन्त भिन्न माना जायेगा तो अत्यन्ताभाव की तरह सर्वथा आकारशून्य होने के कारण उपलम्भ के योग्य भी नहीं रह पायेंगे । तथा, ज्ञेयत्व-विषयत्व प्रमेयत्वादि धर्मों को यदि सत्त्वादि धर्मों से सर्वथा भिन्न मानेंगे तो ज्ञेयत्वादि धर्म सत्त्वादिधर्मविकल हो जाने से यानी 'सत्' आदि रूप न होने से 'असत्' बन बैठेंगे । दूसरी ओर, सत्त्वादि धर्मों को यदि ज्ञेयत्वादि धर्मों से सर्वथा भिन्न मानेंगे तो सत्त्वादि धर्म ज्ञेयादिरूप नहीं रहेंगे । और जो ज्ञेय नहीं होंगे वे अन्ततः 'असत्' ही बने रहेंगे, क्योंकि यह मान्य तथ्य है कि 'उपलम्भ ही वस्तु का सत्त्व है;' यानी जिस का उपलम्भ नहीं होता वह असत् होता है । इस चर्चा से यह निष्कर्ष ध्यान में आता है कि घटादि पदार्थ सत्त्व-द्रव्यादिस्वरूप से ही उपलब्ध होते हैं अतः इस उपलब्धि प्रमाण से यही सिद्ध होता है कि सत्त्वादि धर्म से घडा अभिन्न है । आखिर, प्रमेय = पदार्थों की व्यवस्था प्रमाण को ही अधीन होती है । प्रमाण से यही उपलब्ध होता है कि घटादि और सत्त्वादि कथंचित् अभिन्न हैं । मूल गाथा के पूर्वार्ध में अभेद का समर्थन करने के बाद अब उत्तरार्ध से भेद का समर्थन करते कहते हैं कि मिट्टी आदि सत्पदार्थ घडा की उत्पत्ति के पूर्वकाल में मध्य में चौडा-शुषिर वृत्ताकारादि स्वरूप से विद्यमान नहीं था इसलिये वह शुषिरवृत्ताकारादि से कथंचित् भिन्न भी मानना चाहिये । कारण, मिट्टी आदि जो सत् त्तपर्व काल में घटस्वरूप से (यानी शषिर-वत्ताकारादिस्वरूप से) कभी उपलब्ध नहीं होते हैं । यदि सत् या द्रव्यादि में, पूर्वकाल में घटस्वरूप विद्यमान होता तो ऐसा हो नहीं सकता कि उस की उपलब्धि न हो । जहाँ दृश्यस्वभाव होने पर भी वस्तु की उपलब्धि नहीं होती वहाँ अवश्य उस का अभाव होता है । जब वस्तु को तद्रूप और अतद्रूप उभयस्वभाव अंगीकार करते हैं तो किसी भी प्रकार के विरोध को अवकाश नहीं रहता । जब वस्तु में प्रमाणतः तद्रूपता-अतद्रूपता स्पष्ट प्रतीत हो रही है तब वहाँ विरोध का उद्भावन निरवकाश है । तद्रूप-अतद्रूपता की प्रतीति को मिथ्या नहीं बता सकते, क्योंकि वह निर्बाध होती है, निर्बाध प्रतीति में मिथ्यात्व निवास ही नहीं कर सकता । कैसे इस प्रतीति में बाधाभाव है यह पहले विस्तार से कहा जा चुका है ॥५२॥ ___सत्-द्रव्यादि धर्मों के बारे में एकान्तवाद का स्वीकार मिथ्या है वैसे ही काल-स्वभावादि के पृथक् एकान्त कारणवाद भी मिथ्या है इस तथ्य का निर्देश ५३ वी गाथा में करते हैं - गाथार्थ :- एक एक काल-स्वभाव-नियति-भाग्य और पुरुषार्थ को स्वतन्त्र कारण मानने में मिथ्यात्व है, पदार्थ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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