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पञ्चमः खण्डः - का० ५२
२२३ कत्वेनोपनीतौ भवतो न तदा सम्यक्त्वं प्रतिपद्येते यस्मात् संसारभाविजन्मादिदुःखविमोक्षमात्यन्तिकं विश्लेषं द्वावपि तौ प्रत्येकं न विधत्तः, मिथ्याज्ञानात् सम्यक्रियाऽनङ्गतयाऽऽत्यन्तिकभवोपद्रवानिवृत्त्यसिद्धेः तद्विपर्ययकारणत्वात् - तच्चाऽसकृत् प्राक् प्रतिपादितमिति न पुनः प्रतन्यते । ततः कारणात् कार्य कथंचिदन्यत् कथंचिदनन्यद्, अत एव तदतद्रूपतया 'सच्च असच्च' इति ॥५१॥ अमुमेवार्थमुपसंहारद्वारेण उपदर्शयन्नाह -
नत्थि पुढवीविसिट्ठो ‘घडो'त्ति जं तेण जुज्जइ अणण्णो ।
जं पुण 'घडो'त्ति पुव्वं ण आसि पुढवी तओ अण्णो ॥५२॥ नास्ति सद्रव्यमृत्पृथिवीत्वादिभ्यो विश्लिष्टो = भिन्नो घटः सदादिव्यतिरिक्तस्वभावतया तस्याऽनुपलम्भात् । किञ्च, यदि सत्त्वादयो धर्मा घटादेकान्ततो भिन्नाः सोऽपि वा तेभ्यो भिन्नः स्यात् तदा न घटस्य सदादित्वं स्यात् स्वतोऽसदादेरन्यधर्मयोगेऽपि शशशृंगादेरिव तत्तत्त्वा(तथात्वा)ऽयोगात् । सदादेरपि घटाद्याकारादत्यन्तभेदे निराकारतयाऽत्यन्ताभावस्येवोपलम्भविषयत्वाऽयोगाद् ज्ञेयत्वप्रमेयत्वादिधर्माणामपि सदादिधर्मेभ्यो भेदेऽसत्त्वम् सदादेस्तु तेभ्यो भेदेऽज्ञेयत्वादसत्त्वमेव 'उपलम्भः उपनीत यानी सज्ज होते हैं तब सम्यक्त्व यानी व्यावहारिकप्रामाण्य को प्राप्त नहीं कर सकते । सबब यह है कि परस्पर निरपेक्ष नययुगल में से कोई भी एक नय, भव में होनेवाले जन्मादि दुःखो का सम्पूर्ण वियोग कराने में समर्थ नहीं होते । कारण, निरपेक्ष एक नय से अर्जित ज्ञान मिथ्या होता है, वह सम्यक् मुक्तिसाधक क्रिया का अंग न बन सकने से संसारात्मक प्रचंड उपद्रव से सर्वथा निवृत्ति कराने में समर्थ नहीं होता, क्योंकि वह तो उलटा संसारनिवृत्ति के बदले संसारपरिभ्रमण का ही हेतु बनता है । कई बार यह मिथ्याज्ञान के असामर्थ्य की बात कही जा चुकी है अतः फिर से नहीं दुहराते । इस का फलितार्थ यह है कि कार्य अपने (उपादान) कारण से कथंचित कारणात्मक-कारणानात्मक स्वरूप होने से उत्पत्ति के पहले वह कथंचित् सत् भी होता है और असत् भी ॥५१॥
* घट-पृथ्वी के दृष्टान्त से भेदाभेदसमर्थन * उपसंहार करते हुए ५२ वीं गाथा में कारण-कार्य के अभेद सिद्धान्त का दृष्टान्त से समर्थन कर रहे हैं -
गाथार्थ :- घडा पृथ्वी (मिट्टी) से विशिष्ट यानी भिन्न नहीं है इस लिये अनन्य कहना युक्त है । किन्तु 'घट' के आकार में वह उत्पत्ति के पूर्व नहीं था, इस लिये पृथ्वी से भिन्न है ।
व्याख्यार्थ :- मूल गाथा में 'पृथ्वी' शब्द है, उपलक्षण से यहाँ सत्, द्रव्य, मिट्टी ये सब याद करना है । घडा कोई 'सत्' से या द्रव्य से अथवा मिट्टी यानी पृथ्वी से विश्लेष रखने वाला यानी जुदाई रखनेवाला नहीं है । कारण. 'सत' या द्रव्यादि से पृथक स्वभाव में उस का उपलम्भ नहीं होता । तात्पर्य यह है कि जब जब घट का उपलम्भ होता है तब उस के साथ साथ सत् का, मिट्टीद्रव्य का अथवा पृथ्वी तत्त्व का उपलम्भ सहज हो जाता है ।
यह सोचा जा सकता है कि सत्त्व-द्रव्यत्व आदि गुणधर्म यदि घडा से सर्वथा भिन्न होंगे, अथवा घडा उन गुणधर्मों से यदि सर्वथा भिन्न होगा तो कितने भी उपाय से घडा सत् अथवा द्रव्यात्मक हो नहीं पाता, क्योंकि जो स्वयं असत् है उस को भिन्न धर्मों का योग कराने पर भी सत् या द्रव्यादिस्वरूप नहीं हो सकता जैसे खरगोशसींग । कितना भी उपाय करो, खरगोशसींग कभी भी सत् या द्रव्यात्मक स्वरूप धारण नहीं कर
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