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________________ २२२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् राद्याकारतां प्रतिपद्यते इति कारकव्यापारफलयोरैक्यविषयत्वेऽनेकान्तवादसिद्धिः । तस्माद् द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकाभ्यां केवलाभ्यां सहिताभ्यामन्योन्यनिरपेक्षाभ्यां व्यवस्थापितं वस्त्वसत्यमिति तत्प्रतिपादकं शास्त्रं सर्वं मिथ्येति व्यवस्थितम् ॥५०॥ अमुमेवार्थमन्वय-व्यतिरेकाभ्यां दृढीकर्तुमाह - ते उ भयणोवणीया सम्मइंसणमणुत्तरं होति । जं भवदुक्खविमोक्खं दो वि न पूरंति पाडिकं ॥५१॥ तौ = द्रव्य-पर्यायास्तिकनयौ भजनया = परस्परस्वभावाऽविनाभूततया उपनीतौ = सदसद्रूपैकान्तव्यवच्छेदेन तदात्मकैककार्यकारणादिवस्तुप्रतिपादकत्वेनोपयोजितौ यदा भवतस्तदा सम्यग्दर्शनमनुत्तरं = नास्ति अस्मादन्यदुत्तरं प्रधानं यस्मिंस्तत् तथाभूतं भवतः परस्पराविनिर्भागवर्त्तिद्रव्यपर्यायात्मकैकवस्तुतत्त्वविषयरुच्यात्मकाऽबाधिताऽवबोधस्वभावत्वात् । यदा त्वन्योन्यनिरपेक्षद्रव्य-पर्यायप्रतिपादहै । तात्पर्य, जहाँ कारकव्यापार है वहाँ ही गोलाकार (घडा) फल भी निष्पन्न होता है, इस तरह कारकव्यापार और फल समानविषयक ही हैं ।' – ओह ! तब तो अनायास ही अनेकान्तवाद सिद्ध हो जाता है, क्योंकि अब तो मानना पडेगा कि कारकव्यापार के पहले घडा मिट्टीपिण्ड के रूप में सत् था किन्तु घडा के गोलाकार के रूप में असत् था, अब कारणव्यापार के बाद वह घडा के रूप में उत्पन्न हुआ । अर्थात् कारण व्यापार के पूर्व कार्य कथंचित् सत् और कथंचित् असत् होता है यह सिद्ध हो जाता है। निष्कर्ष - पृथक पृथक् स्वतन्त्ररूप से द्रव्यास्तिक या पर्यायास्तिक नय से प्रतिपादित वस्तु सत्य नहीं हो सकती । तथा दोनों नय को मिला कर किन्तु फिर भी परस्पर सर्वथा निरपेक्ष दोनों नयों से जो वस्तु प्रतिपादित की जाय उसे भी सत्य नहीं मान सकते, क्योंकि परस्पर निरपेक्ष चाहे मिले या नहीं मिले कुछ भी फर्क नहीं पडता । अतः ऐसी असत्य वस्तु का प्रतिपादक वैशेषिक या बौद्धों का शास्त्र भी सब मिथ्या है यह निष्कर्ष फलित होता है ।।५०।। ____ 'परस्पर निरपेक्ष दो नय मिथ्या होते हैं। इसी तथ्य का अन्वय-व्यतिरेक से पुष्टि करने के लिये ५१ वीं गाथा में ग्रन्थकार कहते हैं - गाथार्थ :- द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिक ये दो नय भजना यानी सापेक्ष भाव से मिलाये जाय तो वह मिलन बेजोड सम्यग्दर्शनात्मक हो जायेंगे । किन्तु वे परस्पर निरपेक्ष एक एक मिलकर भी संसारदुःख से छुटकारा नहीं दे सकते ॥५|| * निरपेक्ष दो नयों में मिथ्यात्व, सापेक्ष में सम्यक्त्व * व्याख्यार्थ :- मूल सूत्र में 'ते' का अर्थ है द्रव्यास्तिक और पर्यायार्थिक नय । ये दोनों नय जब भजना से उपनीत होते हैं - अर्थात् परस्पर स्वभाव से अविनाभावि हो कर (यानी अन्योन्यावलम्बी हो कर) एकान्त सत् या एकान्त असत् का तिरस्कार कर के सदसत् उभयात्मक एक कार्य या एक कारण आदि वस्तु का प्रतिपादन करने के लिये उपयोजित - प्रवृत्त होते हैं, तब जिस के मुकाबले में दूसरा कोई है नहीं ऐसे अनुत्तर सम्यग् दर्शनात्मक यानी सही वस्तुदर्शनात्मक बन जाते हैं । कारण, वह वस्तुदर्शन निर्बाध अवबोध स्वरूप होता है और परस्पर अपृथक् रहने वाले द्रव्य-पर्यायात्मक एक वस्तुतत्त्व का पक्षपात रखनेवाली रुचिस्वरूप होता है । जब वे दोनों द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकनय परस्पर निरपेक्ष (स्वतन्त्र) द्रव्य या पर्याय का प्रतिपादन करने के लिये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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