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पञ्चमः खण्डः का० ५०
पलम्भोऽवयविरूपप्रतिपत्तावक्षसहकारी, तद्भावे वा तदवयवरूपोपलम्भोऽपि स्वावयवरूपोपलम्भाक्षसहकारी इति तमन्तरेण स न स्याद् – इति पूर्वपूर्वावयवरूपोपलम्भापेक्षया परमाणुरूपोपलम्भाभावात् तज्जन्यद्व्यणुकाद्यवयविरूपोपलम्भाऽसम्भवात् न क्वचिदपि रूपोपलब्धिः स्यात् । तदभावे च नावयव्युपलब्धिरिति तदाश्रितपदार्थानामप्युपलम्भाभावात् सर्वप्रतिभासाभावः स्यात् । तत एकानेकस्वभावं चित्रपटवद् वस्तु अभ्युपगन्तव्यं वैशेषिकेण ।
बौद्धेनापि चित्रपटप्रतिभासस्यैकानेकरूपतामभ्युपगच्छता एकानेकरूपं वस्त्वभ्युपगतमेव । अथ प्रतिभासोऽपि एकानेकरूपो नाभ्युपगम्यते – तर्हि सर्वथा प्रतिभासाभावः स्यात् इति असकृदावेदितम् । तत एकान्ततोऽसति कार्ये न कारणव्यापारस्तेनाभ्युपगन्तव्यः असति तत्र तदभावात् । नापि सति, मृत्पिण्डे तस्य तमन्तरेणापि ततः प्रागेव निष्पन्नत्वात् । न च मृत्पिण्डे कारकव्यापारः पृथुबुध्नोदराद्याकारस्तत्फलम् अन्यत्र व्यापारेऽन्यत्र फलाऽसम्भवात् स एव मृत्पिण्डः कारकव्यापारात् पृथुबुध्नोदके दर्शन के लिये परमाणु स्वरूप अवयव के चाक्षुष दर्शनरूप सहकारी की आवश्यकता खड़ी होगी और वह असम्भव है । फलतः रूप की उपलब्धि लुप्त हो जाने से अवयवी का दर्शन भी लुप्त हो जायेगा और अवयवी स्वरूप आश्रय अनुपलब्ध रहने पर उस के आश्रित संस्थानादि का भी उपलम्भ न होने से सर्वथा दर्शनशून्यता प्रसक्त होगी । निष्कर्ष चित्र पट का रूप जैसे एक - अनेक स्वभाव से अलंकृत मानना होगा वैसे ही वैशेषिक को वस्तुमात्र एकानेकस्वभावालंकृत मानना पडेगा ।
* बौद्धमत में चित्रप्रतिभास एकानेकस्वरूप
वैशेषिकों की तरह बौद्ध मतवाले भी वस्तु को ( मजबूरी से भी ) एक - अनेकस्वरूप मानते ही हैं, क्योंकि वे भी (चित्रवस्त्र नहीं किन्तु ) चित्रवस्त्रप्रतीति को एक अनेकात्मक स्वीकार करते हैं ।
यदि बौद्ध कहेगा कि हम प्रतीति को एक अनेक स्वरूप नहीं स्वीकार करते । तो किसी भी तरह उन के मत में एक चित्रानुभवसंगति न बैठने से चित्रानुभवप्रतीति का सर्वथा विलोप हो जायेगा - यह कई बार पहले कह दिया है । चित्ररूप का अनुभव तो एक वस्तुरूप है फिर भी उस में नीलानुभवांश, पीतानुभवांश, श्वेतानुभवांश ऐसे अनेकता का स्पष्ट प्रतिभास होता है अतः बौद्धों को भी उस की एकानेकरूपता का स्वीकार अनिवार्य है ।
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इस चर्चा का सार यही है कि 'एकान्त असत्' कार्यों को जन्म देने के लिये कारणकलाप सक्रिय होता है ऐसा बौद्धों को नहीं मानना चाहिये क्योंकि जो एकान्त असत् है उस को उत्पन्न करने के लिये जैसे कि खरगोशसींग का उत्पाद करने के लिये कभी कोई कारणकलाप सक्रिय बनता नहीं है । तथा, कार्य को उत्पत्ति के पहले 'एकान्त सत्' मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि मिट्टीपिण्ड में कारणप्रयोग के पहले से ही घडा तो पूर्व उत्पन्न ही है । यदि ऐसा कहा जाय कि ‘मिट्टी के पिण्ड के ऊपर जब कारणसमूह अपना व्यापार करने लगते हैं तब जो भीतर से शुषिर चौडा गोल आकार निष्पन्न होता है यही उस का फल है, अर्थात् कारणव्यापार निरर्थक नहीं तो यह ठीक नहीं – क्योंकि कारणव्यापार तो मिट्टीपिण्ड से सम्बद्ध है जब कि वैसा गोलाकार तो कार्यात्मक घट के साथ सम्बद्ध है, अन्य स्थान में कुछ प्रयत्न होने पर दूसरे स्थान में फल का उदय हो ऐसा हो नहीं सकता, अन्यथा तन्तुओं के ऊपर कारणव्यापार होने पर यहाँ घट में वैसे गोलाकार फल की निष्पत्ति की विपदा होगी । यदि कहा जाय ‘मिट्टीपिण्ड और शुषिरवाला गोलाकार (फल) यह कोई भिन्न भिन्न नहीं है, वही मिट्टीपिण्ड कारणसमूह के व्यापार से शुषिरगोलाकार में परिणत हो जाता है और तब उसी को 'घडा' कहा जाता
है'
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