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________________ २१६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम दोषोऽस्तु असमानजातीयगुणानारम्भवादिनः । किञ्च, यदि समानजातीयगुणारम्भकत्वमेव कारणगुणानामित्यभ्युपगमः ‘शुक्लात् शुक्लम्' इत्यादिप्रतीतेः, कथं तर्हि कारणगतशुक्लादिरूपविशेषेभ्यः कार्य रूपमात्रस्यापास्ततद्विशेषस्योत्पत्तिर्भवेत् तेभ्यस्तस्याऽसमानत्वात् । अथ तद्गतरूपमात्रेभ्यस्तद्रूपमात्रस्योत्पत्तेर्न दोषः; असदेतत् – शुक्लादिरूपविशेषव्यतिरेकेण रूपत्वादिसामान्यमपहाय रूपमात्रस्याभावात् सामान्यस्य च नित्यत्वेनाऽजन्यत्वात् । न च रूपमात्रनिबन्धनः 'चित्ररूपः पटः' इति प्रतिभासो युक्तः, शुक्लादिप्रत्ययस्यापि तन्निबन्धनत्वेन शुक्लादिरूपविशेषस्याप्यभावप्रसक्तेः । न चावयवगतचित्ररूपात् पटे चित्रप्रतिभासः, अवयवेष्वपि तद्रूपाऽसम्भवात् । न चान्यरूपस्यान्यत्र विशिष्टप्रतिपत्तिजनकत्वम् पृथिवीगतचित्ररूपाद् नहीं रहेगा' - ठीक नहीं है, क्योंकि तब 'रूपी वस्त्र' ऐसी ही प्रतीति होगी किन्तु 'वस्त्र चित्ररूपवाला है' ऐसा प्रतिभास कभी नहीं हो सकेगा । जिन लोगों का यह कहना है कि -- 'वस्त्रादि में कोई एक चित्रसंज्ञक रूप का जन्म सम्भव ही नहीं है, क्योंकि श्वेत आदि विविध रूप परस्पर विरोधी होने से, वे सब (अवयवों में) मिल कर एक चित्ररूप उत्पन्न कर नहीं सकते । श्वेतादि एक एक रूप तो सिर्फ अपने समानजातीय एक एक रूप के ही उत्पादक होते हैं यह दृष्टिगोचर होता है । अतः एक चित्र रूप का जन्म असम्भव है" - ऐसा कहनेवालों ने तो वैशेषिक सम्प्रदाय के सिर पर एक ओर दोष मढ दिया, क्योंकि इस सम्प्रदाय में असमानजातीय गुणों के जन्म को असम्भव माना गया है । तात्पर्य, श्वेतादि रूपों से (मिल कर) असमानजातीय चित्र एक रूप का जन्म सम्भव न होने पर, वस्त्रादि में जो एक चित्र वर्ण का प्रतिभास होता है वह असंगत बन जायेगा । * अवयवी में रूपसामान्य की ही उत्पत्ति असंगत * भिन्न भिन्न रूपवाले अवयवों से अवयवी में सिर्फ रूपसामान्य की ही उत्पत्ति माननेवाले पंडितों को यह भी सोचना चाहिये कि यदि श्वेत तन्तु से श्वेत ही वस्त्र के जन्म के आधार पर कारणगत गुणों से समानजातीय गुणों की ही उत्पत्ति होती है ऐसा अगर सिद्धान्त रच लिया जाय तो जब अनेक अवयवों में भिन्न भिन्न श्वेतपीतादि रूप मौजूद होगा तब उन से उत्पन्न होने वाले अवयवी में भी श्वेत-पीतादि अनेक रूपों का जन्म मानना चाहिये, उस के बदले श्वेत-पीतादि विशेषों से अनाक्रान्त रूपसामान्य का जन्म कैसे हो सकता है ? जब कि श्वेतादिरूप तो रूपसामान्य से विजातीय है । यदि कहें कि – 'श्वेतादिरूपों में रूपसामान्य अन्तर्गत ही है इस लिये रूपसामान्य से गर्भित श्वेतादिरूपों से अवयवी में भी रूपसामान्य का जन्म सम्भव है, इस में कोई दोष नहीं है ।' – तो यह विधान गलत है क्योंकि रूपसामान्य यानी रूपत्व जाति जो कि शुक्लादिविशेषरूप से पृथक् ही है, रूपत्व जाति के अलावा और कोई रूपसामान्य हे नहीं, रूपत्व जाति नित्य होने से अजन्य है अतः उस के जन्म की बात युक्तिविकल है । * रूपसामान्य से चित्ररूपप्रतीति दुर्घट * __ किसी प्रकार वस्त्र में रूपसामान्य का सद्भाव हो जाय, फिर भी उस से 'यह चित्र रूपवाला वस्त्र है' ऐसा प्रतिभास होना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि यदि रूपसामान्य से चित्ररूप का प्रतिभास सम्भव माना जाय तो रूपसामान्य से श्वेतादिरूप का भी प्रतिभास मान लिया जा सकता है । फलस्वरूप, श्वेतादि विशेषरूपों का अस्तित्व मानने की जरूरत न होने से वे लुप्त हो जायेंगे । यदि कहा जाय कि – 'अवयवों में रहे हुए चित्ररूप के जरिये अवयवी में चित्ररूप की प्रतीति हो सकती है' - तो यह भी गलत है क्योंकि अवयवों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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