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पञ्चमः खण्डः - का० ५० वा ? अव्याप्यवृत्तित्वे 'शेषाणामाश्रयव्यापित्वम्' (प्रशस्त० भाष्य पृ० २४९) इति विरुध्येत । आश्रयव्यापित्वेप्येकावयवसहितेप्यवयविन्युपलभ्यमानेऽपरावयवानुपलब्धावप्यनेकरूपप्रतिपत्तिः स्यात् सर्वरूपाणामाश्रयव्यापित्वात् । अथ शुक्लाद्यनेकाकारं चित्रमेकं तद्रूपं यथा शुक्लादिको रूपविशेषः। कथं तीनेकाकारमेकं रूपमविरुद्धं भवेत् चित्रैकरूपाभ्युपगमस्य चित्रतरत्वात् । अथ चित्रैकरूपस्य तस्य प्रत्यक्षेण प्रतीतेन विरोधस्तर्हि सदसद्रूपैकरूपतया कार्य-कारणरूपस्य वस्तुनः प्रतिपत्तौ विरोधः कथं भवेत् ? न च चित्रपटादावपास्तशुक्लादिविशेष रूपमात्रं तदुपलम्भान्यथानुपपत्त्याऽस्तीत्यभ्युपगन्तव्यम् 'चित्ररूपः पटः' इति प्रतिभासाभावप्रसक्तेः । अथ परस्परविरुद्धानां शुक्लादिरूपाणां चित्रैकरूपानारम्भकत्वात् शुक्लादीनां रूपाणां समानरूपारम्भकत्वोपलम्भाद् न तत्र चित्रैकरूपोत्पत्तिः। नन्वयमपरो वैशेषिकस्यैव है । एक वस्त्र में अनेक रूप समावेश मानने पर सूत्र का व्याघात होना स्पष्ट है ।
* एक पट में अनेक शुक्लादिरूप कैसे ? * यह भी सोचना होगा - एक वस्त्रादि में यदि श्वेत पीतादि अनेक रूपों का समावेश मानेंगे तो दो विकल्प प्रश्न खड़े होंगे - Aश्वेतादि एक एक रूप को व्याप्यवृत्ति मानेंगे या Bअव्याप्यवृत्ति मानेंगे ? Bयदि अव्याप्यवृत्ति मानेंगे तो प्रशस्तपादभाष्य के इस वाक्य के साथ विरोध होगा - 'शेषाणामाश्रयव्यापित्वम्' (पृ. २४९) - तात्पर्य यह है कि इस भाष्यवाक्य में कहा गया है कि संयोग, विभाग, शब्द और आत्मा के विशेषगुण अव्याप्यवृत्ति होते हैं और उन से अन्य सभी गुण आश्रयव्यापी यानी व्याप्यवृत्ति होते हैं । इस का फलितार्थ हुआ कि श्वेतादि रूप व्याप्यवृत्ति होते हैं । यदि उन्हें अब अव्याप्यवृत्ति मानेंगे तो स्पष्ट ही उस भाष्यवाक्य के साथ विरोध प्रसक्त होता है ।
Aएक वस्त्रादि में अनेक रूपों का समावेश यदि आश्रयव्यापक यानी व्याप्यवृत्ति माना जाय तो जहाँ पूरा अवयवी नहीं दिखता, सिर्फ एक ही अवयववाला भाग उस का दिखता है, दूसरे अवयववाला भाग नहीं दिखता -- ऐसी स्थिति में भी (वास्तव में तो एक ही रूप का दर्शन होना चाहिये उस के बदले) अनेक रूपों का दर्शन होगा । क्योंकि वे सब आश्रयव्यापक हैं । यदि कहा जाय कि - ‘एक वस्त्रादि में एक शुक्लादि रूप की तरह चित्र रूप भी एक ही होता है सीर्फ उस के आकार अनेक होने से वह विविध रूपों वाला दिखता है' - तो ऐसा मानने पर विरोध क्यों नहीं होगा जब कि आप एक चित्र रूप को भी अनेकआकारवाला मान लेते हो ? आप का यह एक चित्ररूप को अनेकाकार मानने का रवैया ही अति आश्चर्यकारक लगता है । (अवयवी तो चित्र है किन्तु आप की मान्यता तो अति चित्र है) । यदि कहा जाय - ‘अनेकाकारों में भासमान होता हुआ भी वह चित्ररूप प्रत्यक्ष से ही एकरूपात्मक दिखता है अतः प्रत्यक्षगोचर अर्थ में विरोध को अवकाश ही नहीं रहता ।' - ओह ! तब तो अनेकान्तवाद में जो एक ही कारण या कार्य वस्तु को प्रत्यक्ष के आधार पर एक मानते हुए प्रमाणसिद्ध सत्-असत् आदि अनेकाकारगर्भित मानी जाय तो उस में भी विरोध को कहाँ अवकाश है ?!
यह कहना कि – 'वस्त्रादि द्रव्य का चाक्षुष दर्शन उस में रूपसामान्य की मौजूदगी के विना हो नहीं सकता, अब उस में यह तो नहीं कह सकते कि वह रूप श्वेत है या पीतादि है, क्योंकि यदि वह श्वेतरूप हो तो सभी दिशा में से देखनेवाले को श्वेत ही दिखना चाहिये, यदि पीत है तो वैसा ही सभी दिशा में से दिखना चाहिये, किन्तु ऐसा नहीं दिखता तो उस का निष्कर्ष यही है - उस वस्त्र में श्वेतादि कोई भी विशेष रूप नहीं है किन्तु रूपसामान्य जरूर है । इस मान्यता में एक में अनेकाकार का विरोधवाला दोष
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