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________________ २१४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् विरुद्धाभिधानं भवेत् । * प्रासङ्गिकी चित्ररूपमीमांसा * अथ तदवयवानां शुक्लाद्यनेकरूपयोगिता अवयविनस्त्वेकमेव रूपम् । न, तदवयवानामप्यवयवित्वेनानेकप्रकारैकरूपयोगित्वविरोधात् । अथ प्रत्येकमवयवेषु शुक्लादिकमेकैकं रूपम् तर्हि तदवयवादिष्वपि एकैकमेव रूपं यावत् परमाणव इति विभिन्नघटपटादिपदार्थेष्विव चित्रपटेऽपि 'नील-पीतशुक्लरूपा एते भावाः' इति प्रतिपत्तिः स्यात् न पुनः ‘चित्ररूपः घटः' इति, अवयवाऽवयविनोरन्यत्वात् अवयवानामनेकरूपाऽसम्बन्धित्वेऽपि अवयविनस्तथाभावाभावात् । अथाऽवयविनोऽपि विभिन्नानेकरूपसम्बन्धित्वमभ्युपगम्यते तथापि चित्रैकरूपप्रतिभासानुपपत्तिः अनेकरूपसम्बन्धित्वस्यैव तत्र सद्भावात् । सूत्रव्याघातश्चैवं स्यात् 'अविभुनि द्रव्ये समानेन्द्रियग्राह्याणां विशेषगुणानामसम्भवात्' ( ) इति सूत्रेणाभिधानात् अव्यापके पटादिद्रव्ये एकेन्द्रियग्राह्याणां शुक्लादीनां विशेषगुणानामसम्भवोऽनेन सूत्रेण प्रतिपादितः स च व्याहन्येत । किञ्च, शुक्लादीनामेकत्र पटादावनेकस्वरूपाणां सद्भावाभ्युपगमे व्याप्यवृत्तित्वम् अव्याप्यवृत्तित्वम् चित्रपट में या एक चित्रज्ञान में आप नहीं कर सकेंगे । इस का यह दुष्परिणाम आयेगा कि वैशेषिकोंने जो कहा है कि 'पृथ्वी का रूप (यानी रूपसामान्यात्मक एक वस्तु) शुक्ल-पीतादि अनेकप्रकार का होता है' यह कथन भी विरोधग्रस्त हो जायेगा । * चित्ररूप-एकानेकता परामर्श * यदि चित्ररूप की कानेकरूपता टालने के लिये ऐसा कहा जाय कि - ‘अवयवि का रूप तो एक ही है (चित्र) और अनेकरूप का योग तो अनेक अवयवों में है।'- तो यह असंगत है योंकि पट के अवयव भी स्वयं तो अवयवीरूप ही हैं इस लिये पुनः वहाँ अनेक प्रकार का एक रूप होने की विपदा तदवस्थ ही रहेगी । यदि कहा जाय कि 'अवयवीस्वरूप किसी भी एक अवयव में अनेक प्रकार का रूप नहीं है, वह तो सब अवयवों में मिलकर है, वास्तव में एक अवयव में तो शुक्लादि एक एक ही रूप होता है ।' - - तो यह भी असंगत है क्योंकि इस तरह तो अवयव के अवयवों में, उन के भी अवयवों में यावत् परमाणुस्वरूप अंतिम अवयवों में प्रत्येक में एक एक रूप का ही अस्तित्व सिद्ध होगा, ऐसी स्थिति में यह विपदा होगी कि पृथक् पृथक् घट, वस्त्र, मिट्टी आदि पदार्थों को देख कर जैसे 'ये पदार्थ श्वेत-पीता-नीलादि- (विविध) रूपवाले हैं ऐसी प्रतीति होती है वैसे ही चित्रपट को देख कर भी ये सब श्वेत-पीले-नीले अवयव हैं' ऐसी प्रतीति होगी, किन्तु 'यह वस्त्र चित्र (एक) रूपवाला है' ऐसी प्रतीति कभी नहीं होगी । कारण, वैशेषिक मत में अवयव और अवयवी सर्वथा भिन्न होते हैं, इस स्थिति में अनेक अवयवों में मिल कर अनेक रूप भले हो किन्तु अवयवि में तो अनेकरूप नहीं है । यदि कहिये कि – हम अवयवी में भी अनेकरूप का अंगीकार कर लेंगे - अतः यह वस्त्र चित्र (यानी अनेकरूपवाला) है ऐसी प्रतीति जरूर होगी -- किन्तु तब ‘एक चित्ररूपवाला वस्त्र' ऐसी प्रतीति कतई नहीं होगी, क्योंकि अब तो वस्त्र में एक रूप नहीं है अनेक रूप ही हैं । एक वस्त्र (अवयवी) में अनेक रूपों का अंगीकार करने पर ‘अविभुनि द्रव्ये समानेन्द्रियग्राह्याणां विशेषगुणानामसम्भवात्' इस सूत्र की हानि होगी, क्योंकि इस सूत्र में तो अव्यापक वस्त्रादि द्रव्यों में एक ही (चक्षु आदि) इन्द्रिय से ग्राह्य हो ऐसे शुक्ल-पीतादि अनेक विशेष गुणों के सामानाधिकरण्य का स्पष्ट निषेध प्रतिपादन किया गया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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