SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चमः खण्डः - का० ५० २१३ कार्यकारणयोः समानकालतैव स्यात् तथा च कुतः कार्यकारणभावः ? न च ‘सतः कारणात् कार्योत्पत्तिः' इत्यभ्युपगमवादिनः कार्योत्पत्तिकाले कारणस्याऽसत्त्वं बौद्धस्येव सिद्धम् । अविचलितरूपस्य च तस्य सद्भावे तदापि न कार्यवत्ता विकलकारणत्वात् प्राग्वत्, तदा तद्वत्त्वे वा पूर्वमपि तद्वत्त्वं स्यात् अविकलकारणत्वात् तदवस्थावत् । तत्रैकान्तसत्कार्यवादः असत्कार्यवादो वा युक्तः अनेकदो-षदुष्टत्वात् ____ अथ एकान्तेन सदसतोरजन्यत्वादजनकत्वाच्च कार्यकारणभावाभावात् सर्वशून्यतैव । तदुक्तम्'अशक्तं सर्वम् इति चेत्' ( )... इत्यादि । न, कथंचित् सदसतोर्जन्यत्वात् जनकत्वाच्च । न चैकस्य सदसदूपत्वं विरुद्धम्, कथंचित् भिन्ननिमित्तापेक्षस्य सदसत्त्वस्य एकदैकत्राऽबाधिताध्यक्षतः प्रतिपत्तेः । न च अध्यक्षप्रतिपन्ने वस्तुनि विरोधः अन्यथा एकचित्रपटज्ञाने चित्ररूपतायाः चित्रपटे च चित्रैकरूपस्य विरोधः स्यात् । तथा च 'शुक्लाबनेकप्रकारं पृथिव्या रूपम्' इति वैशेषिकस्य जायेंगे, फलतः समानकालीन में कारण-कार्यभाव की असंगति का पूर्वदोष तदवस्थ रहेगा । दूसरी बात यह है कि 'सत्' कारण से कार्योत्पत्ति के पक्ष में बौद्धमत की तरह कार्यजन्मकाल में कारण का विनाश मान्य नहीं है । यदि 'सत्' कारण को कार्यजन्मकाल में भी अचलितस्वभावयुक्त ही मानेगे तो वहाँ व्यापारादि कुछ भी न होने से, पूर्ववत् निष्क्रिय असमर्थ कारणात्मक होने से, कार्यजन्म का सम्भव ही नहीं रहेगा । फिर भी यदि उस से कार्यसम्भव होगा तो तथाविध निष्क्रियस्वरूप किन्तु समर्थ कारण पूर्व काल में भी मौजूद होने से पूर्व काल में भी कार्य का सम्भव मानना पडेगा । निष्कर्ष, उत्पत्ति के पहले कार्य सर्वथा असत् होता है ऐसा एकान्त असत्-कार्यवाद अथवा सर्वथा सत् होता है ऐसा एकान्त सत्कार्यवाद, दोनों में से एक भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि एकान्तवाद में बहुत सारे दूषण प्रसक्त हैं । * कथंचित् सदसत्वाद की निर्दोषता * शून्यवादी :- आपने ठीक कहा कि एकान्त सत् अथवा एकान्त असत् पदार्थ न तो उत्पन्न हो सकता है, न उत्पन्न कर सकता है, अत एव न कोई कारण है न कोई कार्य, इसका फलितार्थ यही है सारा जगत् शून्य है, कुछ भी वास्तविक नहीं है । (दार्शनिकों के मत में 'सत्' पदार्थ या तो कारण होता है या कार्य । लेकिन कारण-कार्य उपरोक्त रीति से संगत न होने से, 'सर्वम् शून्यम्' यही फलित होता है - यह शून्यवादी का तात्पर्य है ।) कहा भी है – यदि सब कुछ (अर्थक्रिया के लिये) अशक्त ही है (तो असत् होने से शून्य है) ..... इत्यादि । अनेकान्तवादी :- शून्यवाद ठीक नहीं है । एकान्त सत् या असत् के बदले यदि कथंचित् (यानी सर्वथा नहीं किन्तु कुछ एक अंश से) 'सत्-असत्' उभयरूप पदार्थ माना जाय तो वह जन्य भी हो सकता है जनक भी । 'यदि एक वस्तु को सत्-असत् उभयरूप मानेंगे तो विरोध प्रसक्त होगा' ऐसा कहना अयुक्त है, क्योंकि भिन्न भिन्न प्रयोजकभूत निमित्तों की अपेक्षा से कथंचित् सत्त्व और कथंचित् असत्त्व दोनों समानकाल में एक ही वस्तु में निर्बाधरूप से प्रत्यक्षगोचर हैं। प्रत्यक्षप्रमाणगोचर पदार्थ विरोध के लिये अस्पृश्य है । यदि प्रत्यक्षप्रमाणगोचर वस्तु में बलात् विरोधापादन किया जायेगा तो एक चित्रपट गोचर प्रत्यक्षज्ञान में जो चित्ररूपता का अनुभव होता है और उस ज्ञान के विषयभूत एक चित्रपट में भी जो चित्राकार रूप का अनुभव होता है - उन में भी विरोध प्रसक्त होगा, क्योंकि यहाँ भी पीतांश-नीलांश इत्यादि अनेक परस्पर विरुद्धरूपों का समावेश एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy