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________________ २१२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् प्रति हेतुता प्राक्तनावस्थावत् । अथ तदा व्यापारयोगाद् हेतुता – असदेतत्, व्यापारेण कार्य प्रति तस्य हेतुत्वे 'सोऽपि व्यापारः कुतस्तस्य ?' इति पर्यनुयोगसम्भवाद् । 'व्यापारवत्पदार्थाचेत्' ननु तत्रापि व्यापारो यद्यपरव्यापारात् तदा व्यापारपरम्पराव्यवहितत्वात् कारणस्य न कदाचित् कार्योत्पादने प्रवृत्तिः स्यात्, अनन्तव्यापारपरम्परापर्यवसानं यावत् कस्यचिदनवस्थानादसतः कारणात् कार्योत्पत्तिश्च स्यात् । ___ अथ कारणरूपमेव व्यापारः तत्काल एव च कार्यम् तेन नानवस्था, नाप्यसतः कारणात् कार्योत्पत्तिः । नन्वेवं कारणसमानकालं कार्यं स्यात् तथा च कुतः सव्येतरगोविषाणवत् कार्यकारणभावः ? अथ कार्यभावकाले कारणस्य न सद्भावस्तर्हि चिरतरनष्टादिव तत्कालध्वंसिनोऽपि कुतः कार्यसद्भावः ? कार्योत्पत्तिकाले तदनन्तरभाविनः सत्ता चेत् ? तर्हि कार्योत्पत्तिः कार्यात् न भिन्नेति * एकान्तसत् पदार्थ में अवस्थाभेद असंगत * ____ अनेकान्तवादी :- सत्कारणवादी का यह बयान गलत है । हेतु यह है कि कारण यदि एकान्तसत् होगा तो उस में अवस्थाभेद संगत न होगा और जब तक पूर्वकालीन सुषुप्त अवस्था का त्याग कर के जनकावस्था में उस का परिवर्तन नहीं होगा तब तक पूर्वावस्था की तरह कार्योत्पत्ति शक्य नहीं होगी । यदि कहा जाय कि - ‘कारण में परिवर्तन न होने पर भी सक्रियता (= व्यापार) के योग से एक ही कारण एकान्त सत् होने पर भी कार्योत्पत्ति का हेतु बन सकता है' - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि व्यापार के द्वारा कारण हेतु बनेगा तो यह प्रश्न है कि 'वह उसी का व्यापार है' ऐसा कैसे सिद्ध करेंगे ? अथवा उस में व्यापार का योग कैसे होगा ? यदि कहा जाय कि अन्य व्यापारयुक्त पदार्थ से - तो उस पदार्थ के व्यापार के लिये अन्य व्यापार की कल्पना करनी पडेगी, फिर उस अन्य व्यापार के लिये और एक अपर व्यापार...... ऐसे व्यापारपरम्परा का ही व्यवधान हो जाने से कारण को कभी भी कार्योत्पत्ति के लिये प्रवृत्ति करने का अवसर ही नहीं आयेगा, क्योंकि व्यापारपरम्परा अनन्त हो जायेगी, उस में अनन्त काल बीतेगा और उतने काल तक तो कोई भी कारण टिकनेवाला नहीं है अतः जब व्यापारपरम्परा के सम्पन्न हो जाने के बाद कार्य उत्पन्न होगा तब तक तो कारण ही चिरविनष्ट हो जाने से, असत् कारण से कार्योत्पत्ति आ पडेगी । * कारण-कार्य में समानकालता होने पर संकट * यदि कहा जाय – व्यापार तो कारणस्वरूप ही है और जिस काल में कारणात्मक व्यापार होता है उसी काल में कार्य होता है, अतः व्यापार के लिये व्यापार... इस तरह की कोई अनवस्था यहाँ नहीं होगी और असत् कारण से कार्योत्पत्ति का प्रसंग भी नहीं है क्योंकि कारण के काल में ही कार्य उत्पन्न होता है।तो यहाँ कार्यकारणभावभंग की विपदा होगी, क्योंकि व्यापार कारणाभिन्न होने से कार्य भी कारणसमानकालीन हो जायेगा और समानकालीन पदार्थों में बाये-दाहीने गोशृंग की तरह कारणकार्यभाव नहीं हो सकता । यदि कहें कि कार्योत्पत्तिकाल में कारण न होने से पूर्वापरभाव से कारण-कार्यभाव सुनिश्चित हो सकेगा - तो यहाँ प्रश्न है कि जैसे चिर काल से नष्ट कारण कार्य को जन्म नहीं दे सकता वैसे तत्काल ध्वस्त कारण भी कैसे कार्य को जन्म दे सकता है ? यदि कहा जाय कि तत्कालध्वस्त पदार्थ तो कार्योत्पत्ति की अनन्तरपूर्वक्षण में सत् होते हुए कार्योत्पत्तिकाल में भी सत् होने से कारण हो सकता है किन्तु चिरध्वस्त पदार्थ अनन्तर पूर्वक्षण में सत् नहीं होता अतः वह कार्योत्पत्तिकाल में न होने से कारण नहीं हो सकता । - तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि कार्य और उस की उत्पत्ति अभिन्न (एक) होने से कारण और कार्य दोनों समानकालीन हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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