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पञ्चमः खण्डः - का० ५०
२११ कार्ये कारणव्यापारस्तदोत्पन्नेऽपि घटादिकार्ये कारणव्यापारादनवरतं तदुत्पत्तिप्रसक्तिः तत्सत्त्वाऽविशेषात् । अथाभिव्यक्तत्वान्नोत्पन्ने पुनरुत्पत्तिः, उत्पत्तेरभिव्यक्तिस्वरूपत्वात्वात्तस्याश्च प्रथमकारणव्यापारादेव निवृत्तत्वात् । ननु अभिव्यक्तिरपि यदि विद्यमानैवोत्पद्यते उत्पन्नाऽपि पुनः पुनरुत्पद्येत, अथाऽविद्यमाना तदाऽसदुत्पत्तिप्रसक्तिः । न चाऽभिव्यक्तावप्यसत्यां कार्य इव कारणव्यापारोऽभ्युपगन्तुं युक्तः, स्वसिद्धान्तप्रकोपप्रसंगात् ।।
अथ 'सतः कारणात् कार्यम्' इति सत्कार्यवादः असतो हेतुत्वाऽयोगात् तथाभ्युपगमे वा शशशृंगादेरपि पदार्थोत्पत्तिप्रसक्तिः । अत्यन्ताभाव-प्रागभावयोः असत्त्वेनाऽविशेषात् । न च प्राग्भावी आसीद् इति हेतु त्यन्ताभावीति वक्तव्यम् यतो यदा आसीत् तदा न हेतुः अन्यदा हेतुरिति प्रसक्तेः । ततश्चेदं प्रसक्तम् – असन् हेतुः संश्चाऽहेतुरिति । ततः सन्नेव हेतुः तस्य कार्ये व्यापारात् नाऽसन् तत्र तदयोगात् – एतदप्यसत्, यतः सतोऽपि कारणस्य प्राक्तनरूपाऽपरित्यागाद् न कार्य
* सत्कार्यवाद में पुनः पुनः कार्योत्पत्ति का संकट * __यह भी सोचना होगा कि सत्कार्यवाद में कार्य उत्पत्ति के पहले और बाद में समानरूप से सत् ही होता है तो जैसे उत्पत्ति के पहले घटादि कार्य को जन्म देने के लिये कारणवर्ग प्रवृत्त होता है वैसे ही उत्पत्ति के बाद भी घटादि सत् कार्य को जन्म देने के लिये पुनः पुनः कारणवर्ग प्रवृत्त ही रहेगा, फलतः निरंतर पुनः पुनः कार्योत्पत्ति होती रहेगी । यदि कहा जाय कि - प्रथम उत्पन्न होने के बाद घटादि कार्य अभिव्यक्तस्वरूप हो जाते हैं अतः पुनः उस की उत्पत्ति रुक जाती है; उत्पत्ति का मतलब ही यहाँ स्पष्ट अभिव्यक्तिरूप है, प्रथम सक्रिय बने हुए कारणों से ही अभिव्यक्ति हो जाती है अतः पुनरुत्पत्ति निरवकाश है । - तो यहाँ दो विकल्प खडे हैं - १, अभिव्यक्ति यदि पूर्व में सत् हो कर ही प्रथमकारणव्यापार से उत्पन्न होती है ऐसा मानेंगे तो अभिव्यक्ति की भी पुनः पुनः निरन्तर उत्पत्तिपरम्परा चलती रहने की विपदा तदवस्थ रहेगी । २ यदि कारणव्यापार के पूर्व में अभिव्यक्ति असत् है ऐसा मानेंगे तो स्पष्ट ही असत् (अभिव्यक्ति) की उत्पत्ति का अतिप्रसंग होगा । असत् कार्य की दिशा में जैसे आप को कारणव्यापार ठीक नहीं लगता, तो असत् अभिव्यक्ति के लिये भी कारणव्यापार अनुचित समझना चाहिये अन्यथा सत्कार्यवादसिद्धान्त के प्रकोप का भाजन आप को होना पडेगा ।
* कारण सत् ही हो - ऐसा एकान्त वर्ण्य * ___ सत्वकारणवादी - कार्योत्पादक कारण सत् ही होता है, असत् पदार्थ किसी भी कार्य का जनक नहीं हो सकता । यदि असत् से कार्यनिष्पत्ति होना मान लेंगे तो शशसींग से भी कार्य उत्पन्न होने का अतिप्रसंग होगा । प्रागभाव से कार्य की उत्पत्ति मानेंगे तो अत्यन्ताभाव से भी उत्पत्ति मानना होगा क्योंकि दोनों समानरूप से असत् है । यदि कहा जाय कि - ‘प्रागभाव पूर्वकालभावि था इसलिये वह हेतु बन सकता है, जब कि अत्यन्ताभाव तो अतिशयेन अभावी (यानी अति तुच्छ) है इसलिये वह हेतु नहीं बन सकता' – तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि इस में ऐसा अनिष्ट प्रसंग आ पडेगा कि जब (पूर्वकाल में) प्रागभाव था तब वह हेतु नहीं था और जिस क्षण में कार्य उत्पन्न हुआ तब वह न होने पर भी हेतु बन जायेगा । इस का अनिष्ट फलितार्थ यह होगा कि प्रागभाव जब सत् है तब हेतु नहीं है और असत् है तब हेतु होता है । निष्कर्ष यह आया कि 'असत् कारण' पक्ष में अनिष्ट होने से जो सत् है वही हेतु बन सकता है, क्योंकि सत् ही कार्योत्पत्ति के लिये सक्रिय हो सकता है न कि असत्, क्योंकि वह कुछ भी योगदान नहीं कर सकता ।
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