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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् कालव्यापिनः क्वचित् कार्यव्यापारविरहिणः सामर्थ्यमवगन्तुं शक्यम् । अथ सर्वदेशाऽव्यापिनस्तस्य तत्र सामर्थ्य भविष्यति । तदसत्, यतः सर्वदेशाऽव्याप्तिस्तस्य तथाप्रतीतेर्यद्यवसीयते सर्वकालाऽव्याप्तिरपि तस्य तत एवाऽभ्युपगमनीया स्यात् । 'अभ्युपगम्यत एव' इति चेत् ? नन्वेवं कतिपयदेशकालव्याप्तिरप्यप्रतिपत्तेरेव अनुपपन्नेति निरंशैकक्षणरूपता भावानां समायाता । न च तदेकान्तपक्षेऽपि कार्यजनकता, प्राक् प्रतिक्षिप्तत्वात् । न चैकान्तनित्यव्यापकत्वपक्षे प्रमाणप्रवृत्तिरित्यसकृत् प्रतिपादितम् । न चाऽसति कार्ये निर्विषयत्वात् कारणव्यापाराऽसम्भवात् सत्येव तेषां व्यापारः, यतो न दृष्ट्वा श्रुत्वा ज्ञात्वा वा हेतूनां कार्ये व्यापारः तेषां जडत्वेन तदसम्भवात् । न चादृश्यमानाऽजडेश्वरादिहेतुकमकृष्टोत्पत्तिकं भूरुहादि सम्भवतीति प्राक् प्रतिपादितम् (पृ. ४२८/४३८)। न चाऽसतः कार्यस्य विज्ञानं न ग्राहकम् असत्यप्यक्षादिबुद्धेः प्रवृत्तेः, अन्यथा कथं कार्यार्थप्रतिपादिका चोदना भवेत् ? किञ्च, यदि सत्येव 'नित्य कारण के न होने पर कार्य का न होना' इस प्रकार का व्यतिरेक सहचार सम्भव न होने से, कार्योत्पत्ति के प्रति नित्य भाव में कारणता स्वरूप शक्ति भी सम्भवहीन हो जाती है । जो सर्वदेश – सर्वकाल में व्यापक हो उस को नित्य कहा जाय तो ऐसे नित्य भाव में कार्यान्वयनशक्ति युक्तिसंगत न होने से कार्योत्पादन के लिये वह समर्थ हो ऐसा नहीं मान सकते । जो सर्वदेश-काल व्यापक होता है उस को कार्योत्पत्ति में विलम्ब सह्य न होने से सतत कार्यजन्म की विपदा वहाँ दुर्निवार है । यदि कहा जाय कि – 'नित्य पदार्थ सर्वदेशव्यापक न होने से योग्यदेशप्राप्ति के विलम्ब से सतत कार्यकारी होने की विपदा नहीं रहेगी और योग्य देश प्राप्त होने पर उस में कार्यजन्मानुकुल सामर्थ्य प्रगट हो जायेगा' - तो यह गलत है । कारण, देश-अव्याप्ति की प्रतीति के बल पर यदि कारण को सर्वदेश-अव्यापक मान लेंगे तो काल-अव्याप्ति की अनुभवसिद्ध प्रतीति के बल पर सर्वकाल-अव्यापकता को भी मानना होगा । तात्पर्य, भाव को नित्य नहीं माना जायेगा ।
यदि कहा जाय कि - हम भाव को नित्य नहीं किन्तु अल्प-देश-कालव्यापक ही मानेंगे, अतः स्वदेशकाल में कार्यकरणसामर्थ्य प्रगट हो सकेगा । - तो यह ठीक नहीं, क्योंकि तब तो फलितार्थ के रूप में अल्पदेश-काल में अव्याप्ति की प्रतीति के बल पर अल्पदेश-कालव्यापकता को भी छोड देना पडेगा, फलतः सभी भावों को निरंश क्षणमात्रस्वरूप मान लेना पडेगा । एकान्त क्षणिक निरंश वस्तुवाद में कार्यजनकता का प्रतिक्षेप तो पहले ही हो चुका है । यह भी पहले कई बार कहा जा चुका है कि भाव को एकान्त नित्य एवं व्यापक यानी विभुपरिमाणवाले मानने में किसी प्रमाण का संवाद उपलब्ध नहीं है । ___यदि कहा जाय – कार्य को उत्पत्ति के पूर्व असत् मानेंगे तो असत् की दिशा में कारण का क्रियान्वित होना सम्भव नहीं होता. सत के प्रति ही वह क्रियान्वित हो सकता है इसलिये सतकार्यवाद ही संगतिमान है। - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि कार्य अभी असत् है ऐसा देख कर या सुन कर तो कारणों को क्रियान्वित नहीं होना है, कारण तो जड है उन्हें वैसा दर्शन या श्रवण होना सम्भव ही नहीं है । अतः उत्पत्ति के पूर्व कार्य असत् हो तब भी कारणों को क्रियान्वित होने में कोई क्षति नहीं है । यह भी पहले खंड में (पृ.४२९) कहा जा चुका है कि विना कर्षणादि से, सिर्फ अदृश्य चेतन परमेश्वर आदि के व्यापार से कहीं भी वृक्षअंकुरादि का उद्भव शक्य नहीं है । यदि कहा जाय कि - असत् कार्य का विज्ञान से ग्रहण न होने से उस के उत्पादन में प्रयत्न शक्य न होगा । – तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि मृगजलादि असत् पदार्थ गोचर प्रत्यक्षादि बुद्धि का प्रवर्तन सर्वत्र देखा जाता है । यदि असद्गोचर बुद्धि को अमान्य करेंगे तो असत् भावि इष्टफल के उपाय का सूचक वेदगत प्रेरणावाक्य कैसे संगत हो सकेगा ?
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