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________________ २०९ पञ्चमः खण्डः - का० ५० प्येकत्वं कुतश्चित् प्रमाणात् प्रसिद्धम् तद्ग्राहकत्वेन तस्याप्रतीतेः । न च बौद्धस्यात्मान्यद् वा वस्तु नित्यमस्ति "क्षणिकाः सर्वसंस्काराः” ( ) इति वचनात् । तन्न तेनैव आत्मनः प्रमेयकार्यतावगतिः । Bनाप्यन्येन, तस्यापि स्वप्रमेयकार्यावगतौ प्रागवृत्तितयाऽसामर्थ्यात् । तन्न ज्ञानलक्षणमपि कार्य हेतोः सत्तां व्यवस्थापयितुं समर्थं क्षणिकैकान्तवादे । अध्यक्षस्य यथोक्तन्यायेन पौवापर्येऽप्रवृत्तेः । अत एव नानुमानस्यापि पौर्वापर्ये प्रवृत्तिः, तस्य तत्पूर्वकत्वात् प्रत्यक्षा प्रतिपन्नेऽर्थे परलोकादाविवार्थविकल्पनमात्रत्वेन सर्वज्ञानस्याभ्युपगमात् । तन्नाऽसत्कार्यवादः प्रमाणसंगतः । * सांख्यसम्मते सत्कार्यवादे दोषाख्यानम् * सत्कार्यवादस्तु प्रागेव निरस्तत्वादयुक्त एव । तथाहि - नित्यस्य कार्यकारित्वं तत्र स्यात्, तचाऽयुक्तम्, नित्यस्य व्यतिरेकाऽप्रसिद्धितः कार्यकरणे सामर्थ्याऽप्रसिद्धेः । न हि नित्यस्य सर्वदेशको खो बैठेगा, क्योंकि एकत्व पूर्व में अगृहीत है, उस का ग्रहण करने से वह अगृहीतग्राही बन जायेगा, स्मरण कभी अगृहीतग्राही नहीं होता । आत्मा स्वतन्त्ररूप से कुम्भ के एकत्व का ग्रहण कर नहीं सकता प्रत्यक्षादि प्रमाणों के आधार पर ही वह अर्थ का प्रकाशन कर सकता है और प्रत्यक्षादि प्रमाण एकत्व के ग्रहण में प्रवृत्ति नहीं कर सकते, यह पहले बताया जा चुका है । यदि प्रत्यक्षादि प्रमाणों के अवलम्बन विना ही आत्मा को एकत्व का ग्रहण करने में सक्षम माना जाय तो जब कोई पुरुष निद्राधीन हो, नशे में हो या बेहोश हो, उस काल में भी आत्मा को एकत्वादि अर्थ के ग्रहण में पटु मानना पडेगा । क्षणिकवाद में, पूर्वापरक्षण में अनुगत एक आत्मा किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं है – क्योंकि कभी भी पूर्वापरक्षण अनुगत एकत्व की आत्मा में प्रतीति नहीं होती । (सादृश्यमूलक एकत्व प्रतीति भ्रान्त होती है ।) बौद्धमत का यह सिद्धान्त है कि 'हर कोई संस्कार (भाव) क्षणिक होता है,' इस लिये बौद्ध मत में आत्मा या अन्य कोई भी चीज नित्य नहीं होती । निष्कर्ष, वही ज्ञान स्वगत ज्ञेय-कार्यता का ग्राहक नहीं बन सकता । __ अन्य ज्ञान से प्रस्तुतज्ञानगत ज्ञेयकार्यता का ग्रहण भी अशक्य है, क्योंकि प्रस्तुतज्ञानगत क्षण में (यानी पूर्वक्षण में) वह अन्यज्ञान मौजूद ही नहीं है । निष्कर्ष, एकान्त क्षणिकवाद में ज्ञानात्मक कार्य से कारण की सत्ता की व्यवस्था सम्भव नहीं है । पहले कहा जा चुका है कि प्रत्यक्ष स्वयं भी क्षणिक होने से, पूर्वापरभाव के ग्रहण में उस का योगदान असम्भव है। प्रत्यक्ष जब असमर्थ है तो अनुमान तो सुतरां असमर्थ होगा, क्योंकि प्रत्यक्ष के बलबूते पर ही अनुमानप्रवृत्ति समर्थ होती है । “जिस विषय का प्रत्यक्ष नहीं होता उस विषय में और जितने भी ज्ञान उदित होते हैं वे सब परलोकादि की कल्पना की तरह अर्थ की कल्पना को ही जन्म देने वाले होते हैं न कि उन के स्वरूप निश्चय को ।' ऐसा बौद्धमान्य सिद्धान्त होने से, प्रत्यक्षभिन्न ज्ञान से किसी भी विषय की या ज्ञानकार्य के कारण की सत्ता की वास्तविक सिद्धि सम्भव नहीं है । निष्कर्ष, क्षणिकवाद में उत्पत्ति के पूर्व कार्य असत् होने का सिद्धान्त प्रमाणसंगत नहीं है । * सांख्य के सत्कार्यवाद की समालोचना * सत्कार्यवाद का निरसन तो पहले (द्वितीयखंड पृ.३५० में) किया गया है इस लिये वह अयुक्त ही है। फिर से देखिये – सत्कार्यवाद में नित्य पदार्थ को ही कार्यजन्मदाता मानना होगा । और वही अयुक्त है, क्योंकि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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