SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् कारणतोपलब्धा, इति प्रकृतेऽपि सा न स्यात् । अथ केवलस्यापि कुम्भस्य दृष्टरकार्यता, ज्ञानस्यापि केवलस्य दृष्टरकार्यताप्रसक्तिः । 'तस्य ततोऽन्यत्वान्न व्यभिचार' इति चेत् ? ननु कुम्भोऽपि कुतोऽन्यः स न भवेत् ? 'प्रत्यभिज्ञानानान्य' इति चेत् ? एतद् ज्ञानेऽपि समानम्, नित्यता च कुम्भस्यैवं भवेदिति कुतोऽसत्कार्यवादः ? न च प्रत्यभिज्ञानं भवतः प्रमाणम् पूर्वापररूपाधिकरणस्यैकतया प्रतीतेः । न हि पूर्वापरप्रत्ययाभ्यामपरपूर्वरूपताग्रहः, नाप्येकप्रत्ययेन पूर्वापररूपद्वयस्य क्रमेण ग्रहः, एकस्याक्रमस्य क्रमवद्रूपग्राहकतयाऽप्रवृत्तेः । न च स्मरणस्य द्वयोवृत्तिः संभवति । न चास्य प्रमाणता । न च पूर्वापरप्रत्यययोः परस्परपरिहारेण वृत्तौ तत उत्पद्यमानं स्मरणमेकत्वस्य वेदकं युक्तम् अगृहीतग्राहितयाऽस्मरणरूपताप्रसक्तेः । न चात्माप्येकत्वमवैति प्रत्यक्षादिप्रमाणवशेनार्थाऽऽवेदकत्वात् तस्य चैकत्वेऽप्रवृत्तेः । न च प्रमाणनिरपेक्ष एवात्मैकत्वग्राहकः, स्वापमदमूर्छाद्यवस्थायामपि तस्य तद्ग्राहकत्वोपपत्तेः । न च तस्याउसके पूर्व में पुनः प्रवृत्तिशील मान लेने पर ही संगत हो सकती है । वह भी पुनः पुनः पूर्व में प्रवृत्तिशील मानने पर संगत हो सकेगा । इस तरह पुनः पुनः पूर्व-प्रवृत्ति मानने में अनवस्था दोष प्रसक्त्त होगा, तो स्व में ज्ञेयकार्यता का बोध होगा कैसे ? बिना किसी विशेष ही यदि समानकालीन मान कर ज्ञान को ज्ञेय से जन्य मानेंगे तो इस से उलटा, यानी 'ज्ञेय भी ज्ञान का कार्य है' ऐसा बोध होने का सम्भव होने से ज्ञेय भी ज्ञान की व्यवस्था का सम्पादक बन बैठेगा । दूसरी बात यह है कि समानकालीन स्तम्भ और कुम्भ इन दोनों में कभी भी कारण-कार्यभाव दृष्टिगोचर नहीं हुआ, अत एव प्रस्तुत में समकालीन ज्ञेय और ज्ञान में भी कारण-कार्यभाव होना सम्भव नहीं है । यदि कहा जाय कि - 'स्तम्भ के विना सिर्फ अकेला कुम्भ दृष्टिगोचर होता है इसलिये उनमें कारण-कार्यभाव नहीं मान सकते,' - तो यह भी कह सकते हैं कि ज्ञेय के विना भी केवल ज्ञानमात्र दृष्टिगोचर होता है (विना सर्प भी रस्सी में सर्पज्ञान होता है) इस लिये ज्ञान में भी ज्ञेय-कार्यता सिद्ध नहीं हो सकती । यदि कहा जाय कि-वह ज्ञान उस ज्ञान से विजातीय है जो ज्ञेय से ही उत्पन्न होता है अतः उस से कोई कारणता का व्यभिचार नहीं है - तो इस के सामने यह क्यों नहीं कह सकते कि वह कुम्भ भी उस कुम्भ से विजातीय है जो स्तम्भ से ही उत्पन्न होता है ! यदि प्रत्यभिज्ञान के बल पर वहाँ एक ही कुम्भ माना जाय तो प्रत्यभिज्ञान के बल पर वहाँ एक ही ज्ञान भी माना जा सकता है। तथा प्रत्यभिज्ञान को वास्तविक मान लेने पर तो कुम्भ में क्षणिकता समाप्त हो कर नित्यता की प्रसक्ति हो जायेगी और नित्यता प्रसक्त होने पर असत्कार्यवाद कहाँ जायेगा ?! * बौद्धमत में प्रत्यभिज्ञा अप्रमाण है * प्रत्यभिज्ञान से कुम्भ के एकत्व का प्रतिपादन बौद्ध मत में अशक्य है क्योंकि वहाँ प्रत्यभिज्ञान को प्रमाण नहीं माना गया । वह इस लिये कि पूर्वरूप और पश्चात्कालीनरूप का अधिकरण एक ही है ऐसी प्रतीति हो नहीं सकती । न तो पूर्वरूपग्राही प्रतीति पश्चात्भाविरूप को विषय करती है, न पश्चाद्भाविरूपग्राहक प्रतीति पूर्वरूप को विषय करती है । ऐसी भी कोई एक प्रतीति नहीं है जो क्रमशः पूर्व-पश्चाद् रूपों का अवगाहन कर सके । जो स्वयं ही एकक्षणस्थायी होने से क्रमविकल है उस की क्रमिक (पूर्वापर) क्षणों को ग्रहण करने हेतु प्रवृत्ति शक्य नहीं । ___ स्मरण की भी क्रमिकक्षणों के ग्रहण के लिये प्रवृत्ति अशक्य है । कदाचित् शक्य हो, किन्तु वह प्रमाणभूत नहीं है । पूर्वोत्तरक्षणों का स्वरूप सर्वथा एक-दूसरे से भिन्न है, अतः उन दोनों से कोई ऐसा एक स्मरण कैसे उत्पन्न हो सकता है जो उन में एकत्व का ग्रहण करे ? यदि उस का ग्रहण करेगा तो वह स्मृतिरूपता For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy