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पञ्चमः खण्डः - का० ५० कार्यताऽभ्युपगमे क्षणिकत्वान्न कार्यरूपता अतः सन्तानान्तरमत्रापि कार्यतानिबन्धनमभ्युपगन्तव्यम् तस्यापि च क्षणिकत्वे कार्यताऽप्रसिद्धेस्तन्निबन्धनमपरं सन्तानान्तरमभ्युपगमनीयमित्यनवस्था परिस्फुटैव ।
किञ्च, क्षणिकभावाभ्युपगमवादिनो यदि भिन्नकार्योदयाद्धेतोः सत्त्वमभिमतं तदा तत्कार्यस्यापि अपरकार्योदयात् सत्त्वसिद्धिरित्यनवस्थाप्रसक्तेः न क्वचित् सत्त्वव्यवस्था स्यादिति कुतस्तद्व्यवच्छेदेन 'सत् कार्यम्' इति व्यपदेशः । अथ ज्ञानलक्षणकार्यसद्भावाद्धेतोः सत्त्वव्यवस्थितिः । ननु ज्ञानस्यापि कथं ज्ञेयसत्ताव्यवस्थापकत्वम् ? 'ज्ञेयकार्यत्वाद्' इति चेत् ? ननु किं तेनैव ज्ञानेन ज्ञेयकार्यता स्वात्मनः प्रतीयते उत Bज्ञानान्तरेण ? Aन तावत् तेनैव, तस्य प्रागसत्त्वाभ्युपगमादप्रवृत्तेः प्रवृत्तौ वा तत्कार्यतावगतिः पुनः प्राक् प्रवर्त्तने संगच्छते तत्रापि पुनः प्राक् प्रवृत्ताविति अनवस्थाप्रसक्तेः कुतस्तस्य तत्कार्यतावगतिः ? अथ समानकालत्वेऽपि ज्ञानस्य ज्ञेयकार्यता; नन्वेवमविशेषाद् ज्ञेयस्यापि ज्ञानकार्यतावगतिः स्यादिति तदपि तद्व्यवस्थापकं प्रसज्येत । न च समानकालयोः स्तम्भकुम्भयोः होगा, क्योंकि यह पहले ही कह चुके हैं कि 'एक के न होने पर दूसरे का अवश्य न होना' यह बात क्षणिकवाद में अशक्य है, क्योंकि 'पूर्वक्षण के विद्यमान सभी पदार्थ न होने पर कार्य का न होना' यह व्यतिरेक अतिव्यापक बन जाता है ।
जैसे क्षणों में कारण-कार्यभाव की व्यवस्था के लिये सन्तान की कल्पना निरर्थक है वैसे ही सन्तानों के बीच कारण-कार्यभाव की व्यवस्था के लिये अपर सन्तानों की कल्पना भी निरर्थक है। कारण, उन अपरसन्तानों में भी कारण-कार्य भाव की व्यवस्था के लिये अपर अपर सन्तानों की कल्पना करते रहने में कोई अन्त ही नहीं आयेगा । इस की और स्पष्टता यह है कि अपर सन्तान की कल्पना के बाद भी, अगर उसे क्षणिक ही मान कर उस में कार्यता मान लेंगे तो उस में कार्यरूपता संगत नहीं होगी क्योंकि क्षणिक भाव में उस का सम्भव नहीं है । फलतः उसमें कार्यता-संगति के लिये अन्य सन्तान की कल्पना का अवलम्बन लेना होगा। उसे भी क्षणिक मान लेने पर पुनः कार्यता संगत नही हो सकेगी, उसको संगत करने के लिये पुनश्च सन्तानान्तर की कल्पना का अन्त कहाँ आयेगा ? अत: अनवस्था दोष अनिवार्य रहेगा ।
* अर्थक्रियाधीन सत्त्व के पक्ष में अनवस्थादि * ___ यह भी सोचने जैसा है - असत्कार्यवादी बौद्ध तो भावमात्र को क्षणिक मानते हैं, क्षणिक भाव का सत्त्व भी स्व से भिन्न अर्थक्रिया यानी अपरक्षणरूप कार्य की उत्पत्ति को अधीन मानते हैं । उस अपर क्षण का सत्त्व भी तृतीयक्षण-उत्पत्ति को अधीन हो जाय तो ऐसे सभी पूर्व पूर्व क्षण का सत्त्व उत्तरोत्तरक्षणाधीन हो जाने से, किसी भी एक क्षण का सत्त्व ठीक ढंग से सिद्ध नहीं हो सकेगा, क्योंकि अनवस्था दूषण सिर उठायेगा । ऐसी स्थिति में, जब कि 'सत्' की ही व्यवस्था दुष्कर है, 'सत्' के व्यवच्छेद पूर्वक कार्य उत्पत्ति के पहले असत होने का निर्देश कैसे हो सकेगा ? यदि यहाँ कहा जाय कि – ज्ञानात्मक कार्य के उदय रूप हेत से क्षणिक भाव से सत्त्व की सिद्धि हो सकती है - तो इस पर प्रश्न है कि कार्यात्मक ज्ञान से ज्ञेय की सत्ता का स्थापन कैसे होगा ? उत्तर में यदि कहा जाय कि वह ज्ञेय का कार्यभूत लिंग होने से ज्ञेय की सत्ता का स्थापन करेगा तो यहाँ दो विकल्प प्रश्न हैं । A मैं ज्ञेय का कार्य हूँ, ऐसा बोध अपने आप स्वयं वह ज्ञान कर लेता है या B अन्य ज्ञान से होता है ? A ज्ञान स्वयं ज्ञेयकार्यत्व का बोध करने में सक्षम नहीं होता क्योंकि ज्ञेय जब पूर्वक्षण में था तब वह स्वयं ही न था, इसलिये पूर्वक्षण के ज्ञेय को कारणरूप में ग्रहण करने के लिये उसकी प्रवृत्ति सम्भव नहीं है । यदि सम्भव मानी जाय तो वहाँ ज्ञेयकार्यत्व का बोध
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