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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ५० वायौ चित्ररूपप्रतिपत्तिप्रसक्तेः, भेदश्चावयवाऽवयविनोर्भवदभिप्रायेण, यदि च रूपमात्रमेव तत्र स्यात् 'क्षितौ रूपमनेकप्रकारम्' इति विरुध्यते - अनेकप्रकारं हि शुक्लत्वादिभेदभिन्नमुच्यते रूपमात्रं च शुक्लादिविशेषरहितम् तस्य शुक्लादिविशेषेष्वनन्तर्भावात् कथं न विरोधः ?! ___ यदपि शुक्लाद्यनेकप्रकाररूपाभ्युपगमे क्षितौ सूत्रविरोधपरिहाराभिधानं किलाऽविभुनि द्रव्ये समानेन्द्रियग्राह्याणां विशेषगुणानामेकाकाराणामसम्भवः न त्वनेकाकाराणाम्, क्षितौ शुक्लाद्यनेकाकाराणां तेषामुपलम्भात् एकाकाराणामेकत्र बहूनां सद्भावे एकेनैव शुक्लादिप्रतिपत्तेर्जनितत्वाद् अपरतद्भेदकल्पनावैयर्थ्यप्रसङ्गान्न तदभ्युपगमः न चैवमनेकाकाराणाम्' इति – तदपि असङ्गतम्, व्याप्याऽव्याप्यवृत्तित्वविकल्पद्वयेऽपि दोषप्रतिपादनात् । अथाऽव्याप्यवृत्तित्वे न विरोधदोषः ‘शेषाणामाश्रयव्यापित्वमेव' इत्यवधारणानभ्युपगमात् । नन्वेवं सूक्ष्मविवरप्रविष्टालोकोद्योतिताल्पतरपटविभागवृत्तिरूपदेशस्य प्रतिपत्तौ यदि तदाधारस्य पटावयविनः प्रतिपत्तिस्तदा तदाधेयाऽशेषशुक्लादिरूपप्रतिपत्तिरपि भवेत् आधेयप्रतिमें भी पूर्वोक्त रीति से चित्ररूप का होना सम्भव नहीं है । उपरांत एक द्रव्य में रहे हुए रूप से अन्य द्रव्य में रूप के वैशिष्ट्य की प्रतीति का होना युक्तियुक्त भी नहीं है क्योंकि वैसा मानेंगे तो पृथिवीद्रव्य में रहे हुए चित्ररूप के जरिये वायुद्रव्य में चित्ररूप का प्रतिभास होने की आपत्ति होगी । आप के वैशेषिक मत में तो अवयव और अवयवी में सर्वथा (एकान्त से) भेद माना गया है, अतः यदि भिन्न पदार्थ के रूप से अन्य पदार्थ में रूप की प्रतीति मानी जाय तो पृथ्वी के रूप से 'रूपवान् वायुः' ऐसी प्रतीति की विपदा अनिवारित रहेगी । उपरांत, यदि अवयवी में आप रूपसामान्य का ही सद्भाव मानेंगे तो 'पृथ्वी में रूप अनेक प्रकार का होता है' यह कथन विरोधग्रस्त रह जायेगा क्योंकि जो निरवयव परमाणु हैं उन में तो कोई एक ही रूप होता है और अवयवी पृथ्वी में तो सर्वत्र रूपसामान्य ही रहता है, अनेक प्रकार के रूप होने का मतलब है शुक्लत्व-पीतत्व आदि अनेक जाति विशिष्ट भिन्न भिन्न रूप, जब कि रूप सामान्य का मतलब है रूपत्व के अलावा जिस में कोई विशेष (व्याप्य) जाति न रहती हो ऐसा रूप । शुक्लादि विशेष रूपों में तो शुक्लत्वादि विशेषजाति का समावेश रहता है अतः एकाकी रूपत्व जातिवाले रूप का अन्तर्भाव शुक्लादिविशेषों में हो नहीं सकता तब ऐसी स्थिति में पृथ्वी में अनेकप्रकार के रूप का विधान क्यों विरोधग्रस्त नहीं होगा ? * एक द्रव्य में अनेकाकार अनेक रूप प्रतिपादन सदोष १ पृथ्वी में अनेक प्रकार के रूप का अंगीकार करने पर जो विरोध प्रसक्त हुआ है उस के परिहार के लिये यह जो कहा गया है कि - "अविभु (= अव्यापक) द्रव्य में समानेन्द्रिय से ग्राह्य अनेक विशेषगुणों के होने का जो निषेध किया है वह सिर्फ एकाकार गुणों के लिये । जब कि अनेकाकार यानी श्वेत-पीतादि समानेन्द्रियग्राह्य गुणों का निषेध नहीं है । पृथ्वी द्रव्य में श्वेत-पीतादि अनेक आकार वाले अनेक गुणों की प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है, जब कि शुक्लादि किसी एक ही आकारवाले अनेक रूपों का एक द्रव्य में सद्भाव मानेंगे तो 'यह श्वेत है' ऐसी बुद्धि तो उन में से किसी एक ही श्वेत रूप से सम्भव होने से, अन्य श्वेतादि समानाकार गुणों की कल्पना बेकार रह जायेगी । अत एव एकाकार समानेन्द्रियग्राह्य अनेक गुणों का निषेध नहीं है । पृथ्वी द्रव्य में श्वेत-पीतादि अनेक आकार वाले अनेक गुणों की प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है, जब कि शुक्लादि किसी एक ही आकारवाले अनेक रूपों का एक द्रव्य में सद्भाव मानेंगे तो 'यह श्वेत है' ऐसी बुद्धि तो उन में से किसी एक ही श्वेत रूप से सम्भव होने से, अन्य श्वेतादि समानाकार गुणों की कल्पना बेकार रह जायेगी। अत एव एकाकार समानेन्द्रियग्राह्य अनेक गुणों का एक द्रव्य में अंगीकार नहीं किया है । अनेकाकार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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