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________________ पञ्चमः खण्डः का० ५० २०५ प्रतिभासनात् प्रत्यक्षस्यासदर्थग्राहकत्वेन भ्रान्तताप्रसक्तेः तदा तत्कार्यस्य सत्त्वप्रसक्तिः स्यादिति कथमसत कारणव्यापारः प्रतीयते ? तन्नाऽसतः कार्यत्वं युक्तम् । नापि असत्कारणं कार्यम्, तदानीमसति कारणे तस्य तत्कृतत्वाऽयोगात् क्षणमात्रवास्थायिनः कारणस्य स्वभावमात्रव्यवस्थितेरन्यत्र व्यापाराऽयोगात् । अथ तदनन्तरं कार्यस्य भावात् प्राग्भावित्वमात्रमेव कारणस्य व्यापारः असदेतत्, समस्तभावक्षणानन्तरं विवक्षितकार्यस्य सद्भावात् सर्वेषां तत्पूर्वकालभावित्वस्य भावात् तत्कारणताप्रसक्तेः । अथ सर्वभावक्षणाभावेऽपि तद्भाव इति न तस्य तत्कार्यता । न, क्षणिकेषु भावेषु विवक्षितक्षणाभाव एव सर्वत्र विवादाध्यासितकार्यसद्भावाद् न तदपेक्षयाऽपि तस्य कार्यता भवेत् । न च क्षणिकस्य कार्यस्य तदभावेऽपि पुनर्भवनसम्भवः तस्य तदैव भावाद् अन्यदा कदाचिदप्यभावात् । न च विशिष्टभावक्षणधर्मानुविधानात्तस्य तत्कार्यताव्यवस्था, सर्वथा की कारणता का भान सम्भव नहीं है, क्योंकि कार्य उस काल में असत् होने से लक्षित होना असम्भव है फिर भी अगर वहाँ कार्य सापेक्ष कारणता का प्रतिभास भ्रान्त मानेंगे तो असत् अर्थ - स्पर्शी होने से वह प्रतिभा भ्रान्त ही मानना होगा, अगर उस को भ्रान्त नहीं मानना है तो कार्य का उस काल में सत्त्व मान लेना होगा। अब बताईये कि असत् की निष्पत्ति के लिये कारणों के व्यापार की बात में कितना तथ्य है ? निष्कर्ष, असत् की कार्यता युक्तिसंगत नहीं है । * कारण कार्यअसहभावी होने पर अनेक संकट * बौद्धसम्प्रदाय का जो यह सिद्धान्त है कि कार्यक्षण में कारण सर्वथा अपने अस्तित्व को खो देता है और असत् से कार्यजन्म होता है यह सिद्धान्त गलत है । यदि कार्य क्षण में कारण मौजूद नहीं रहेगा तो उत्पन्न वस्तु किस का कार्य है यह तय न होने से, 'वह अमुक कारण से उत्पन्न हुआ' ऐसा निर्णय नहीं होगा । दूसरी बात यह है कि कारण यदि क्षणिक है तो वह अपनी उत्पत्तिक्षण में आत्मस्वभावलाभ में ही व्यग्र हो जाने से कार्योत्पत्ति के लिये कोई योगदान कर नहीं पायेगा । यदि ऐसा कहा जाय – कार्य की पूर्वक्षण में मौजूद रहना यानी कार्यपूर्वभाव यही कारणव्यापार है, क्योंकि कारणक्षण के बाद ही कार्योत्पत्ति का दर्शन होता है । तो यह गलत है क्योंकि किसी एक कार्य की पूर्वक्षण में तो सारे जगत के पदार्थ पूर्वभावी होते हैं, फलतः उन सभी में उस कार्य के प्रति कारणता होने के आपत्ति आयेगी । - — यदि कहा जाय - अपेक्षित कारण से अतिरिक्त सारे जगत् के पदार्थ न होने पर भी अपेक्षित कारण की, पूर्व क्षण में सत्ता होने पर ही कार्योत्पत्ति होती है, अत एव अपेक्षित कारण से अतिरिक्त पदार्थों की अपेक्षा से कार्यत्व की आपत्ति उत्पन्न भाव में शक्य नहीं है । तो यह गलत है क्योंकि जब सर्व भाव क्षणिक है तब अपेक्षित कारण क्षण के भी न रहने पर ही विवादास्पद कार्योत्पत्ति का सम्भव है, अतः उस अपेक्षित कारणक्षण की कार्यता भी विवादास्पद कार्य में नहीं हो सकेगी । ऐसा भय रखना कि यदि अपेक्षित कारण की कार्यता का भंग हो जायेगा तो कार्य कारणनिरपेक्ष हो जाने से प्रतिक्षण उत्पन्न होता ही रहेगा, यानी दूसरे क्षण में उसके विनाश के बदले पुनरुन्मज्जन की विपदा होगी • यह भय निरर्थक है, क्योंकि जिस का स्वभाव ही क्षणिक है वह अपनी क्षण से अतिरिक्त किसी भी क्षण में रह नहीं सकता, अन्यथा वह ' क्षणिक' नहीं रहेगा । यदि कार्यता की ऐसी व्यवस्था की जाय कि जो जिस विशिष्ट भावक्षण के धर्मों का अनुगमन ( अंगीकार) करता है वह उस का कार्य होगा । - तो यह व्यवस्था भी क्षतिविहीन नहीं है, क्योंकि यदि कार्य व्यक्ति कारण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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