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________________ २०४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । अतः कारणस्य कार्यशून्यता प्रागभावः प्रागेव सिद्धः । असदेतत्, अकारणस्यापि कार्यशून्यतोपलम्भात्तत्सम्बन्धाद् घटस्य तत्कार्यताप्रसक्तेः । तथाहि – यस्य प्रागभावित्वं तस्य कार्यता, तच्च कार्यशून्यं पदार्थान्तरं कारकाभिमताद् अन्यदपि च तत्प्रागभावस्वभावं प्राप्तम् तत्सम्बन्धेन च घटादेः शशशृङ्गादिव्यवच्छेदेन कार्यताऽभ्युपगतेति सूत्रपिण्डकार्यताऽपि घटस्यैवं भवेत् । न च तदन्वयव्यतिरेकाभावान तत्कार्यता, अन्वय-व्यतिरेकामावस्य तत्राऽसत्त्वनिबन्धनत्वात् । न च प्रागभावो नाम प्रत्यक्षादिप्रमाणग्राह्यः, मृत्पिण्डस्वरूपमात्रस्यैव तत्र प्रतिभासनात् । न च कारणस्वरूपमेव प्रागभावः, निर्विशेषणस्य स्वरूपमात्रस्य कार्येऽपि सद्भावात् तस्यापि प्रागभावरूपताप्रसक्तेः । अथ कार्यान्तरापेक्षया तस्यापि प्रागभावरूपता कारणस्वभावाऽभ्युपगम्यत एव । न, कारणाभिमतापेक्षयाऽपि तद्रूपताप्रसक्तेः । तथाप्रतीत्यभावान तद्रूपतेति चेत् ? न, प्रतीतिमात्रादनपेक्षितवस्तुस्वरूपाद् वस्तुव्यवस्थाऽयोगात् । ततो मृत्पिण्डादिरूपतया वस्तु गृह्यतेऽध्यक्षदिना न पुनस्तद्व्यतिरिक्तकारणादिरूपतया तस्यास्तत्राऽप्रतिभासनात्, प्रतिभासनेऽपि विशिष्टकार्यापेक्षया कारणत्वस्य प्रतिपत्तौ कार्यप्रतिभासमन्तरेण तत्कारणत्वस्याऽप्रतीतेरसतस्तदानीं कार्यस्याऽके पहले सिद्ध है । – तो यह ठीक नहीं, क्योंकि मिट्टी आदि की तरह घट के अकारण माने गये तन्तु आदि भी मिट्टी काल में कार्यशून्य उपलब्ध होने से प्रागभावरूप प्रसक्त होंगे और वैसे प्रागभाव के साथ भी सम्बन्ध होने से घट भी तन्तुजन्य होने की आपत्ति आयेगी । * असत् की उत्पत्ति अनभिमत है * स्पष्टीकरण :- कार्यता उस में होती है जिस का प्रागभाव हो । वह जो कार्यशून्य पदार्थान्तर है जो कि कारकरूप से अभिमत मिट्टी से अन्य तन्तु आदि है वह भी कार्यशून्य होने से प्रागभावस्वभाव प्राप्त होता है क्योंकि वह कार्य से शून्य है, फलस्वरूप, प्रागभावात्मक सम्बन्ध से, शशसींगआदि के व्यवच्छेदपूर्वक घटादि में कार्यता होगी और उसके कारण के रूप में पूर्व में कार्य से शून्य तन्तुपिण्ड में कारणता प्राप्त होने से घट भी तन्तु का कार्य हो जाने की आपत्ति होगी । - ‘घट में तन्तु के अन्वय-व्यतिरेक न होने से वह तन्तु का कार्य नहीं हो सकता' – ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि अन्वय-व्यतिरेक का अभाव तो घटका तन्तु में असत्त्वद्योतक हो सकता है किन्तु कपालसमवेत घट में तन्तुकार्यता का विरोधी नहीं है । दूसरी बात, प्रागभाव यह कोई स्वतन्त्र प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्ध तत्त्व नहीं है, प्रागभाव के नाम से तो सिर्फ मिट्टी के पिण्ड का स्वरूपमात्र ही भासित होता है । तथा, प्रागभाव कारण का स्वरूपमात्र भी नहीं होता, क्योंकि निर्विशेष यानी जैसा तैसा स्वरूपमात्र तो कार्य का भी मौजूद होने से कार्य को भी प्रागभाव स्वरूप कहना होगा । यदि कहें कि - - ''इस में कोई आपत्ति ही नहीं है क्योंकि कार्य भी भावि कार्य का कारण होने से उस का प्रागभाव कहा जा सकता है" - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि सिर्फ भावि कार्य का नहीं किन्तु अपने कारण की अपेक्षा से भी उस में प्रागभावरूपता प्रसक्त होगी । “वैसी प्रतीति न होने से अपने कारण की अपेक्षा कार्य को प्रागभावस्वरूप नहीं कह सकते'' - ऐसा भी नहीं, क्योंकि वस्तुस्वरूप से निरपेक्ष प्रतीतिमात्र से कभी वस्तुस्थापना नहीं हो सकती अत एव तथाविधप्रतीति के अभाव से वस्तु का निह्नव भी शक्य नहीं है । फलितार्थ यह है कि कार्योत्पत्ति के पूर्वकाल में वस्तु मिट्टी आदि रूप में ही प्रत्यक्षादि से लक्षित होती है; उस से अतिरिक्त कारणादिरूप से अन्य कोई वस्तु वहाँ भासित नहीं होती । कदाचित् भासित होना मान लिया जाय तो कारणत्व की प्रतीति किसी विशिष्ट कार्य से सापेक्ष ही हो सकती है, अतः कार्य भासित हुए विना उस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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