SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ __ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् तदेवमुलूकप्रतिपादितशास्त्रस्य मिथ्यात्वम्, तदभिहितपदार्थानामप्रमाणत्वात् प्रमाणबाधितत्वाच्च । आचार्यस्तु एतत् सर्वं हृदि कृत्वा तन्मिथ्यात्वाऽविनाभूतं प्रतिपादितसकलन्यायव्यापकं 'जं सविसय' इत्यादिना गाथापश्चार्द्धन हेतुमाह – यस्मात् स्वविषयप्रधानताव्यवस्थिताऽन्योन्यनिरपेक्षोभयनयाश्रितं तत्, अन्योन्यनिरपेक्षनयाश्रितत्वस्य मिथ्यात्वादिनाऽविनाभूतत्वात् ॥४९॥ अन्योन्यनिरपेक्षनयाश्रितस्य मिथ्यात्वाऽविनाभूतत्वमेव दर्शयन्नाह - जे संतवायदोसे सक्कोलूया भणंति संखाणं । संखा य असव्वाए, तेसिं सव्वे वि ते सच्चा ॥५०॥ यानेकान्तसद्वादपक्षे द्रव्यास्तिकाभ्युपगतपदार्थाभ्युपगमे शाक्यौलूक्या दोषान् वदन्ति साङ्ख्यानां क्रियागुणव्यपदेशोपलब्ध्यादिप्रसङ्गादिलक्षणान् – ते सर्वेऽपि तेषां सत्या इत्येवं सम्बन्धः कार्यः । ते च दोषा एवं सत्याः स्युः यद्यन्यनिरपेक्षनयाभ्युपगतपदार्थप्रतिपादकं तत् शास्त्रं मिथ्या स्यात् नाभी निरर्थक ठहरेगी । तथा, बुद्धि का जन्म भी क्रमशः नहीं हो सकेगा क्योंकि समवायात्मक जन्म नित्य है फलतः ‘मन का लिंग है - एक साथ ज्ञान की अनुत्पत्ति' इत्यादि सभी तथ्यों के साथ विरोध प्रसक्त होगा। निष्कर्ष - नित्य समवाय की कल्पना असंगत है यह सिद्ध होता है । ___ सम्पूर्ण न्याय-वैशेषिक मान्य पदार्थों की तर्क-परीक्षा का नतीजा यही है कि उलूक ऋषि प्रदर्शित शास्त्र मिथ्या है, क्योंकि उन के द्वारा प्रदर्शित पदार्थ अप्रामाणिक है इतना ही नहीं, विरोधिप्रमाणों से बाधित भी हैं । श्री सिद्धसेन आचार्य, उपरोक्त चर्चा को हृदय में रखते हुए उलूकदर्शन में मिथ्यात्व का सूचक मिथ्यात्व का अविनाभावि एवं उपरोक्त चर्चा में दिखाये गये सभी न्यायों (युक्ति-दृष्टान्तों) में व्यापक ऐसा हेतु, ४९ वीं 'जं सविसय-' इत्यादि गाथा के पश्चार्ध से दिखा रहे हैं – उलूक ऋषिने दोनों द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नयों का आश्रय लिया है, किन्तु उस के दर्शन में ये दोनों नय अपने अपने विषय भेद या अभेद को ही प्रधानता देने में मशगल है. एक-दसरे के वक्तव्य से सर्वथा निरपेक्ष है। अन्योन्य निरपेक्ष नयों पर अवलम्बित दर्शन में मिथ्यात्व होना अवश्यभावि है ॥४९।। * बौद्ध, न्यायवैशेषिक और सांख्य मतो में परस्पर दूषकता * प्रतिद्वन्द्वी नय से निरपेक्ष किसी एक ही नय पर आश्रित अभिप्राय मिथ्यात्व अविनाभूत होता है - यह तथ्य ५० वीं गाथा से दिखाया जा रहा है - मूलगाथार्थ :- बौद्ध और वैशेषिकवादी, सांख्य दर्शन के सत्कार्यवाद में जो दोषारोपण करते हैं; एवं बौद्ध-वैशेषिकदर्शनों के असत्कार्यवाद में सांख्य की ओर से जो भी दूषण लगाये जाते हैं वे सब तथ्यभरे हैं ।। ३-५० ।। ____ व्याख्यार्थ :- द्रव्यास्तिक नयमान्यपदार्थ का अवलम्ब ले कर सांख्यवादि ने जो एकान्ताभिनिवेशपूर्वक सत्कार्यवाद का मंडन किया है उसके ऊपर शाक्य यानी बौद्ध और उलूक यानी वैशेषिकमत की ओर से, अनेक दोष दिखाये हैं - उत्पत्ति के पूर्व कार्य सत् होने पर उस से अर्थक्रिया की उपलब्धि, उस के गुणों की एवं 'सत्' आदि व्यवहार की उपलब्धि आदि का अनिष्ट होगा - ऐसे दोष दिखाये गये हैं । ग्रन्थकार महर्षि कहते हैं कि वे दोष सत्य हैं । गाथा के पूर्वार्ध का ऐसा अन्वय करना । दोष सत्य कैसे हैं यह देखिये - उन का शास्त्र यदि प्रतिद्वन्दीनय से निरपेक्ष एक नय के माने हुए पदार्थों का अगर प्रतिपादन करता है तो वह जरूर मिथ्या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy