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________________ २०१ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ समवायिकारणावस्थायामिव परमार्थतो वृत्त्यभावात् । एकरूपवृत्तिसद्भावेऽपि तेषां विनाशाभ्युपगमात् न तन्निमित्ता स्वकारणेषु तेषां स्थितिर्भवेत् तत्सद्भावेऽपि कथं तद्भावनिमित्तस्तद्भाव इति स्वयमेव चिन्त्यम् । अथ द्वितीयः पक्षस्तदा संयोगादिवत् समवायबहुत्वप्राप्तेः 'समवायोऽभेदवान्' इत्यभ्युपगमव्याहतिः । नित्यत्वे च समवायस्याऽभ्युपगम्यमाने स्वकारणसमवायस्य स्वसत्तासमवायस्य च जन्मशब्दवाच्यस्य सर्वदा सद्भावात् कार्यजन्मनि क्वचिदपि कारणानां साफल्यं न स्यात्, तथा चाध्यक्षादिविरोधः, तन्त्वादेः पटादिकार्यजनकत्वेनाध्यक्षादिना प्रतीतेः 'अन्यतरकर्मजः उभयकर्मजः संयोगजश्व संयोगः' (वै० द०७-२-९) "विभागोऽपि अन्यतरोभयकर्म-विभागजः' ( ) 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानं' (न्या. द. १-१-४) इत्यादिजन्मप्रतिपादकसूत्रसमूहविरोधश्च । ___ समवायलक्षणस्य च जन्मनो नित्यतया क्रमाऽसम्भवाद् भावानां क्रमोत्पत्तिरुपलभ्यमाना विरुद्धा च स्यात् । समवायलक्षणजन्मनित्यतया च जगद् अनुपकार्योपकारकभूतम् इति शास्त्रप्रणयनमनर्थकं भवेत् । बुद्धिजन्मनोऽपि समवायस्वभावतया क्रमाभावात् 'युगपद् भानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्' (न्या० द० १-१-१६) इत्यादि सर्वमपि विरुद्धं स्यादिति नित्यसमवायप्रकल्पनमसमञ्जसमिति स्थितम् । का काम नहीं करता वैसे ही पारमार्थिकरूप से अविनष्टावस्था में भी वह सम्बन्धरूप नहीं है | जब वृत्ति यानी सम्बन्ध एकरूप = अविच्छिन्नरूप से मौजूद होने पर भी घटादि को विनष्ट माने जाते हैं उस का फलितार्थ यह है कि कारणों में घटादि की स्थिति समवायमूलक नहीं होती । अब आप को ही सोचना चाहिये कि जगत् में समवाय सत् होने पर भी जब सम्बन्धरूप नहीं है तो समवायास्तित्वमूलक घटादि का सद्भाव उन के अवयवों में मानना कहाँ तक उचित है ?! ___घटसम्बन्धात्मक समवाय से पटादिसम्बन्धात्मक समवाय भिन्न है यह दूसरा पक्ष मान्य किया जाय तो संयोगादि की तरह अनेक समवाय मान्य हो जाने से 'समवाय अभिन्न है' इस मन्तव्य को व्याघात पहुँचेगा । * समवायनित्यतापक्ष में जन्मपदार्थसमीक्षा * समवायनित्यता पक्ष में जन्म क्या चीज है यह भी विचारणीय है, यदि अपने कारणों में कार्य का समवाय अथवा कार्य में सत्ता का समवाय यही जन्म की व्याख्या हो तो कार्योत्पत्ति का जश कारणों को कभी नहीं प्राप्त होगा, क्योंकि नित्य समवायस्वरूप उत्पत्ति सदा विद्यमान ही है । फलस्वरूप प्रत्यक्षादिप्रमाणों का विरोध प्रसक्त होगा क्योंकि तन्तु आदि में वस्त्रादि की कारणता प्रत्यक्षप्रसिद्ध है । उपरांत, 'किस का किस से जन्म होता है' यह बतानेवाले सूत्रसमुदाय के साथ विरोध प्रसक्त होगा, उन सूत्रों का यह अनुवाद है – 'संयोग प्रतियोगीअनुयोगि में से किसी एक के कर्म से या उभय के कर्म से अथवा तो संयोग से उत्पन्न होता है।' (वैशेषिक द० ७-२-९) 'संयोग की तरह विभाग भी किसी एक के कर्म से, उभय के कर्म से अथवा विभाग से उत्पन्न होता है ।' ( ) 'प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रिय और विषय के संनिकर्ष से उत्पन्न होता है' (न्याय द० १-१-४) । तथा, जन्म की व्याख्या समवायरूप करने पर, समवाय नित्य होने से सभी पदार्थों का जन्म समकालीन ही हो गया, तब पदार्थों में जो क्रमशः उत्पत्ति दिखाई देती है उस के साथ विरोध प्रसक्त होगा । तथा, समवायात्मक जन्म नित्य होने से, सारे जगत में न तो कोई किसी का उपकारक होगा, न कोई किसी का उपकार्य होगा । इस के फलस्वरूप, मन्दबुद्धि जन के उपकार के लिये जो महर्षियों ने शास्त्ररचना की है वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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