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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अथ 'विनष्टकतिपयसम्बन्धित्वात्' इति हेतुर्विवक्षितस्तदाऽनैकान्तिकः । यतः यदि नाम कश्चित् सम्बन्धी विनष्टस्तथापि अपरसम्बन्धिनिबन्धना सम्बन्धस्यावस्थितियुक्तैव । न च संयोगस्यापि कतिपयसंयोगिविनाशेऽपि अपरसंयोग्यवस्थानात् अनेनैव न्यायेनाऽवस्थानप्रसक्तिः, संयोगस्य प्रतियोगि भिन्नत्वात् तद्विनाशे विनाशोपपत्तेः समवायस्य तु सर्वत्रैकत्वात् नैकसम्बन्धिविनाशे विनाशः । ‘इह' प्रत्ययस्यान्यत्राप्यविशेषात् तन्निबन्धनस्य समवायस्याप्यभेद इति नान्यसम्बन्धिसद्भावे तद्विनाशप्रसक्तिः । - असदेतत्, यतः किं य एव घटादयो विनाशमनुभवन्ति स्वकारणादिसमवायिनः तद्वृत्त्यात्मक एव समवायोऽविनष्टे पटादिसम्बन्ध्यन्तरेऽवतिष्ठते आहोस्विदन्य एवासौ इति कल्पनाद्वयम् ।
यद्याद्यः पक्षस्तदा प्रागवस्थावदप्रच्युतवृत्तित्वाद् घटादयोऽवस्थिता एव स्युः, तदनवस्थाने वाऽनवस्थितवृत्तित्वात् समवायस्यापि विनाश; तस्य वृत्त्यात्मकत्वात्, अन्यथा तस्य तद्रूपतानुपपत्तेः । स्वतन्त्रस्य च तदनुपकारिणस्तद्वृत्तिः 'समवायः' इति नामकरणे संज्ञामात्रमेव भवेत् न वस्तुतथाभावः। तथा चाऽविनष्टसम्बन्ध्यवस्थायामपि घटादयो न स्वाश्रयवृत्ताः समवायसद्भावबलात् सिध्येयुः विनष्टभी सकलसम्बन्धियों का विनाश नहीं होता, परमाणु तो उस काल में भी अवस्थित रहते हैं । यदि प्रथम प्रयोग (नियम) में हेतु का यह अर्थ विवक्षित हो कि कुछ सम्बन्धियों का विनष्ट होना, तो ऐसा हेतु साध्यद्रोही होगा, क्योंकि किसी एक सम्बन्धि का विनाश होने पर भी अन्य अन्य सम्बन्धियों के अवस्थित होने से सम्बन्ध भी अवस्थित यानी अविनष्ट रह सकता है । यदि यह कहा जाय कि - ऐसे तो किसी एक संयोगि के नष्ट होने पर भी अन्य संयोगियों के अवस्थित रहने पर संयोग भी अविनष्ट रहने की विपदा होगी – तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि समवाय सर्वत्र एक होता है जब कि संयोग संयोगिभेद से भिन्न भिन्न होता है । अतः एक सम्बन्धि का नाश होने पर संयोग का नाश होगा न कि समवाय का । 'यहाँ' ऐसा भान घट-वस्त्रादि सर्वत्र एकसा होता है अतः अनुगतप्रतीति के बल पर उसका निमित्तभूत समवाय भी अभिन्न सिद्ध होता है अतः जब तक परमाणु आदि सम्बन्धि मौजूद है तब तक समवाय का विनाश असम्भव है ।
प्रतिपक्षी :- समवायवादी का यह प्रतिविधान गलत है । कारण, यहाँ दो विकल्पों का विमर्श करना होगा, अपने कारणादि में समवायी जिन घटादि का नाश माना जाता है, क्या उन्हीं का सम्बन्धभूत समवाय अविनष्ट अन्य पटादिसमवायिओं के रहते हुए रहता है या उन पटादि का समवाय उस से अन्य होता है ?
* नष्ट-अनष्ट संबन्धियों का एक समवाय दुर्घट * ___ प्रथम विकल्प, यदि विनाशपूर्वावस्था में घटादि का समवाय जैसे अन्य पटादि सम्बन्धि में अवस्थित है वैसे आक्षिप्त विनाश के बाद भी वह अप्रच्युत सम्बन्धात्मक रूप से अवस्थित है तब तो घटादि भी अवस्थित ही रहने चाहिये । यदि उन को अनवस्थित मानेंगे तो उस काल में सम्बन्ध भी ‘अनवस्थित का सम्बन्ध' बन जाने से समवाय स्वयं भी अनवस्थित हो जाने से उसका विनाश ही प्रसक्त होगा, क्योंकि समवाय तो सम्बन्धात्मक ही सिद्ध किया गया है । जब उसका सम्बन्धि विनष्ट होगा तो विनष्टसम्बन्धि के सम्बन्ध के रूप में उसका विनाश अवश्यं भावी है । यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो वह समवाय घटादि का सम्बन्धरूप ही नहीं घट सकेगा। तथा, घटादि को कुछ भी उपगृहीत न करनेवाले किसी स्वतन्त्र पदार्थ को उस का सम्बन्ध कह कर 'समवाय' ऐसा नामकरण करेंगे तो वह सिर्फ निरर्थक संज्ञा मात्र रह जायेगा, क्योंकि वास्तव में तो वैसा तथ्य है नहीं। ऐसी स्थिति मान्य करने पर, घटादि जब अविनष्टावस्थाशाली होंगे तब भी वे समवाय के जोर पर अपने कपालादि आश्रय में वृत्ति नहीं हो सकेंगे, क्योंकि जैसे विनष्ट अवस्था में वह उन के लिये सम्बन्ध
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