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________________ ___ १९९ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ न संतिष्ठेरन् ? अथ स्वारम्भकावयवविनाशाद् विभागाद् वा घटादीनां विनाशः सत्यपि समवायेऽवस्थितिहेतौ सहकारिकारणान्तराभावाद् विरोधिप्रत्ययोपनिपाताच्च । ततो न घटादीनां नित्यत्वप्रसङ्गः इति । असदेतत् – यतः कपालादीनां घटाद्यारम्भकावयवानामपि स्वारम्भकावयवेषु समवायसद्भावात् कुतो विभागो विनाशो वा येन कारणविभागादिसद्भावाद् घटादेविनाशोत्पत्तिर्भवेत्, विरोधिसमवायसद्भावे विभागादेरनुत्पत्तेः । यदि च स्वारम्भकावयवानां विनाशोऽभ्युपगम्येत तदा समवायस्यापि विनाशाभ्युपगमोऽवश्यंभावी सम्बन्धिनिवृत्तौ सम्बन्धनिवृत्तेरवश्यंभावित्वात् कुण्डबदरसंयोगविनाशे तत्संयोगवत् सम्बन्धिनां वाऽविनाशप्रसङ्गोऽविनष्टसम्बन्धत्वात् अनुपरतसंयोगद्रव्यद्वयवत्, अन्यथोभयेषामपि तत्सम्बद्धस्वभावहानिप्रसक्तिः स्यात् ।। ____ अथ यदि निवृत्ताऽशेषसम्बन्धित्वात् समवायविनाश इति प्रथमप्रयोगार्थस्तदा हेतोः पक्षैकदेशाऽसिद्धताप्रसक्तिः । न ह्यशेषाणां सम्बन्धिनां प्रलयेऽपि विनाशः परमाण्वादीनां तत्राप्यवस्थानात् । नित्य है तो सम्बन्धि भी नित्य अवस्थित मानने होंगे । * समवाय नित्य होने पर घटादिविनाश दुर्घट * समवायवादी :- अपने आरम्भक अवयवों के विनाश से या उनके विभाग से घटादि का विनाश हो सकता है । अवस्थितिकारक समवाय तदवस्थ रहने पर भी अवस्थिति के लिये अन्य सहकारि कारणों के न होने पर एवं विरोधि हेतुओं के उपस्थित हो जाने से विनाश अवर्जनीय है, अत: घटादि में नित्यत्व की विपदा सम्भव नहीं है । प्रतिपक्षी :- यह विधान गलत है । कारण, घटादि की तरह उस के अवयवभूत कपालादि में भी नित्यत्व प्रसक्त हैं, क्योंकि वे भी अपने अवयवों कपालिकादि में, कपालिका भी अपने अवयव उपकपालिकादि में इस वत यणक अपने अवयव परमाण में नित्य समवाय सम्बन्ध से रहते हैं. सम्बन्धि नित्य होने पर ही सम्बन्ध नित्य रह सकता है अत: द्व्यणुकादि सम्पूर्ण अवयवीवर्ग भी नित्य बने रहेंगे । अब उन घटादि के अवयवों के विभाग का या विनाश का सम्भव ही कहाँ है जिस से कि कारणविभागादि के होने पर घटादि उद्भव सिर उठा सके ?! जब नाशविरोधि समवाय नित्य उपस्थित है तो विभागादि की उत्पत्ति वह कैसे होने देगा ? यदि घटादि के आरम्भक अवयवों का वि गत होने पर भी मानने का आग्रह रखेंगे तो उनका सम्बन्धभूत समवाय भी नष्ट होने की विपदा अवश्य आयेगी । कारण, जहाँ सम्बन्धि विनाश होता है वहाँ सम्बन्धविनाश अवश्य होता है यह व्याप्ति है, उदाहरण है – बेर या कुण्डात्मक संयोगि के नाश से संयोग सम्बन्ध का नाश होता है । अथवा समवाय को अविनष्ट मानने पर उस के सम्बन्धि घटादि को भी अविनष्ट मानना होगा । कारण, यह नियम है कि जहाँ सम्बन्ध अविनष्ट रहता है वहाँ सम्बन्धि भी अविनष्ट रहते हैं, उदाहरण - अविनष्टसंयोगवाले आत्मा और आकाश द्रव्य । यदि सम्बन्ध के रहते हुए भी सम्बन्धि का नाश मानेंगे तो उस में सम्बद्धस्वभावता को हानि पहुँचेगी अर्थात् सम्बन्ध के रहते हुए भी कभी वे असम्बद्ध ही रह जायेंगे । समवायवादी :- आपने जो पहले नियम बताया कि सम्बन्धि का विनाश हो वहाँ सम्बन्धविनाश अवश्य होता है, इस प्रयोग में यदि सम्बन्धिविनाश से 'सकलसम्बन्धिविनाश होने पर समवाय का विनाश' यह अर्थ अपेक्षित हो तब हेतु में पक्षैकदेश में असिद्धि (यानी भागासिद्धि) दोष प्रसक्त्त होगा, क्योंकि प्रलय काल में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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