________________
१९८
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् नियम इति न ततोऽपि आधाराधेयप्रतिनियमः ।
योऽपि दधि-कुण्डसंयोगो दृष्टान्तत्वेनोपात्तः सोऽपि अस्मान् प्रत्यसिद्धः, पूर्वमेव संयोगस्य प्रतिषिद्धत्वात्, तत्सद्भावेऽपि चायं पर्यनुयोगस्तत्रापि तुल्यः । तथाहि – यदि 'इह कुण्डे दधि' इति बुद्धिः संयोगनिमित्ता तस्य चैकत्वम् तदा निमित्तत्वाऽविशेषात् यथा 'कुण्डे दधि' इति प्रत्ययः तथा 'दनि कुण्डम्' इत्यपि स्यात् दधि-कुण्डसंयोगस्याऽविशेषे तज्जन्यप्रत्ययस्याप्यविशेषप्रसक्तेः, अन्यथा तस्य तनिमित्तत्वाऽयोगात् अतिप्रसंगात् । किंच, यदि 'इह तन्तुषु पटः' इति प्रत्ययः तन्तु-पटव्यतिरिक्त निमित्तमन्तरेण न स्यात् 'इह समवायिषु समवायः' इत्यपि प्रत्ययोऽपरसमवायनिमित्तमन्तरेण न स्यात् । अथापरसमवायप्रकल्पनायामनवस्थाप्रसक्तेस्तमन्तरेणाप्यस्य प्रत्ययस्योत्पत्तिस्तर्हि अनेनैव हेतुरनैकान्तिकः स्यात् इति न 'इह' प्रत्ययात् समवायसिद्धिः । यच्च ‘कारणानुपलब्धेर्नित्यः समवायः' इत्यभिधानम् तदप्यसंगतम् यतो यद्यसौ नित्यः स्यात् तदा घटादीनामपि नित्यत्वं प्रसज्येत स्वाधारेषु तेषां सर्वदाऽवस्थानात् । तथाहि - एषां समवायात् स्वाधारेष्ववस्थानमिष्यते स च नित्य इति किमिति सदैते होना है तो वह साधारणतया सर्वत्र मौजूद होने से गुण में भी द्रव्यत्वसमवाय से द्रव्यत्व व्यक्त होने की विपदा तदवस्थ रहेगी । निष्कर्ष, समवाय के बल पर भी व्यंग्य-व्यंजक शक्तिनियम सम्भव न होने से उस के द्वारा आधार-आधेयभाव का नियम भी असम्भव है ।
* समवाय-एकत्व सिद्धि में संयोगदृष्टान्तव्यर्थ * समवायवादीने जो एकत्व के लिये संयोग का दृष्टान्त दिया है वह बौद्धादि के सामने असिद्ध है क्योंकि संयोग कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है यह पहले ही कहा गया है । यदि उसकी स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार कर ले तो उस को भी समवाय की तरह ही प्रश्नविकल्पों का सामना करना होगा । देखिये – 'यहाँ कुण्डे में दहीं' इस बुद्धि को यदि संयोग के निमित्त से मानेंगे और संयोग को एक ही मानेंगे तो जैसे 'कुण्डे में दहीं' प्रतीति होती है वैसे 'दही में कुण्ड' ऐसी भी प्रतीति हो सकेगी क्योंकि दोनों के लिये निमित्तभूत संयोग एक ही है, तथा दहीं और कुण्ड का संयोग यदि एक ही है तो उस से होने वाली दोनों प्रतीतियों में एकरूपता प्रसक्त होगी । यदि ऐसा नहीं होगा तो संयोग में प्रतीतियों के प्रति निमित्त भाव भी घटेगा नहीं, क्योंकि एक संयोग को विविधरूप प्रतीतियों का निमित्त मानने पर सारे कार्यवृन्द में एककारणकत्व की विपदा हो सकती है ।
यह भी विमर्शनीय है कि 'यहाँ तन्तुओं में वस्त्र' ऐसा बोध तन्तु या पट से अतिरिक्त निमित्त (समवाय) के विना नहीं हो सकता तो 'यहाँ समवायिओं में समवाय' ऐसा बोध भी उन दोनों से अतिरिक्त समवाय के विना कैसे हो सकेगा ? यदि इस स्थान में भी नये समवाय की कल्पना करने जायेंगे तो उस के लिये भी अपर समवाय अपर समवाय इस ढंग से अनवस्था दोष प्रसक्त होगा। यदि अनवस्था को टालने के लिये वहाँ अतिरिक्त समवाय के विना ही उस ('समवायिओं में समवाय') बोध की उत्पत्ति मानी जाय तो समवायसाधक हेतु यहाँ साध्यद्रोही प्रसिद्ध होगा । तात्पर्य, 'यहाँ' ऐसी प्रतीति से समवाय की सिद्धि अशक्य है । यह जो कहा था कि - समवाय का कोई कारण उपलब्ध नहीं है अतः वह नित्य ही होना चाहिये - वह असंगत विधान है, क्योंकि यदि वह नित्य होता तो घटादि में भी नित्यत्व प्रसक्त होगा क्योंकि नित्य होने से उसको अपने आधारों में नित्यवास करना पडेगा और नित्यवास करने के लिये आश्रय भी नित्य होना चाहिये । समझो कि, घटादि अवयवी का समवाय के बल पर अपने आश्रयों में अवस्थान माना गया है, जब सम्बन्धि घटादि नित्य होंगे तभी उसका सम्बन्ध नित्य हो सकता है, सम्बन्धि के विना सम्बन्ध कैसा ? तात्पर्य,
4, जब सम्बन्ध
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org