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________________ १९२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् पदार्थसद्भावः तत्साधकप्रमाणाभावाद् बाधकोपपत्तेश्चेति स्थितम् ।। * समवायपदार्थस्थापनोत्थापने * समवायस्तु ‘इह तन्तुषु पटः' इत्यादीहबुद्धिविशेषाद् द्रव्यादिभ्यो अर्थान्तरत्वेनाभ्युपगम्यते 'अयुतसिद्ध०' (प्रशस्त० कं०) इत्यादिलक्षणोपेतः । यथा हि सत्ता-द्रव्यत्वादीनामात्मानुरूपप्रत्ययकर्तृत्वात् स्वाधारेषु तेभ्यः परस्परतश्चार्थान्तरमावस्तथा समवायस्यापि पञ्चसु पदार्थेषु “इह तन्तुषु पटः, इह पटद्रव्ये गुण-कर्मणी, इह द्रव्य-गुण-कर्मसु सत्ता, इह द्रव्ये द्रव्यत्वम्, इह गुणे गुणत्वम् इह कर्मणि कर्मत्वम् इह द्रव्येषु अन्त्या विशेषाः" इत्यादिविशेषप्रत्ययदर्शनात् पञ्चभ्यः पदार्थेभ्योऽर्थान्तरता तस्यावसीयते । तथा च प्रयोगः – येषु यदाकारविलक्षणो यः प्रत्ययः तद्व्यतिरिक्तार्थान्तरनिबन्धः सोऽभ्युपगन्तव्यः, यथा पुरुषे 'दण्डी' इति प्रत्ययः। तथा चायं पञ्चसु पदार्थेषु 'इह' प्रत्ययः इति स्वभावहेतुप्रतिरूपकः प्रयोगः। निबन्धनमन्तरेणास्य सद्भावे नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा स्यादिति विपर्यये निष्कर्ष :- विशेषपदार्थ अस्तित्वशाली नहीं है क्योंकि उसका साधक कोई प्रमाण नहीं है और बाधक मौजूद है। * समवाय पदार्थ की स्थापना - पूर्वपक्ष * ___'यहाँ तन्तुओं में वस्त्र' इस प्रकार 'यहाँ' ऐसे उल्लेख के साथ जो विशिष्ट बुद्धि होती है उस के आधार पर द्रव्यादि से अतिरिक्त वस्तु के रूप में समवाय का स्वीकार न्या. वै० दर्शनों में किया गया है। उसके ये लक्षण हैं - अयुतसिद्धता यानी द्रव्यादि का गुणादि के साथ अपृथग्भाव । आधार और आधेय के बीच ऐसा अपृथग्भाव बनाये रखने वाला कोई सम्बन्ध होता है। वही सम्बन्ध 'यहाँ यह है' ऐसी बुद्धि का हेतु है। जैसे सत्ता और द्रव्यत्वादि को अपने द्रव्यादि आधारों से अलग पदार्थ के रूप में मंजुर किये जाते है, क्योंकि वे अपने द्रव्यादि आधारों में स्वानुरूप 'सत्' 'द्रव्य' 'गुण' इत्यादि प्रतीति के उद्भावक है, तथा एक ही आधार में रहते हुए भी, स्वानुरूप भिन्न प्रतीति के जनक होने से सत्ता-द्रव्यत्व अलग अलग माने जाते हैं : वैसे समवाय भी द्रव्यादि पाँच पदार्थों से अलग पदार्थ, विशिष्ट प्रतीतियों के आधार पर सिद्ध होता है। विशिष्ट प्रतीतियाँ इस तरह है – “यहाँ तन्तुओं में वस्त्र है', यहाँ वस्त्र में गुण या क्रिया में सत्ता है, यहाँ द्रव्य में द्रव्यत्व है, यहाँ गुण में गुणत्व है, यहाँ क्रिया में कर्मत्व है, यहाँ द्रव्यों में अन्त्य विशेष हैं।' देखिये प्रयोग - कुछ भावों में यदि उन से विलक्षणाकार प्रतीति होती है तो वह उन भावों से अतिरिक्त पदार्थ प्रेरित होती है - ऐसा मानना होगा, जैसे पुरुष को देख कर ‘डण्डावाला' ऐसी बुद्धि पुरुष से भिन्न दंड से प्रेरित होती है। वैसे ही द्रव्यादि पाँच पदार्थों के बारे में - ‘यहाँ' ऐसा जो विलक्षण बोध होता है वह भी पाँच से अतिरिक्त पदार्थ (= समवाय) से प्रेरित होना चाहिये। – यह प्रयोग करिब करिब बौद्धमत के स्वभावहेतु प्रयोग जैसा ही है, क्योंकि इस में विलक्षणप्रतीति का स्वभाव ही हेतु के रूप में निर्दिष्ट है। यदि कोई उलटी शंका करे कि अलग निमित्त के विना भी 'यहाँ' ऐसी विशिष्ट प्रतीति हो सकती है - तो उस में यह बाधक प्रमाण तर्कस्वरूप है कि अलग पदार्थ के विना वैसी विशिष्ट प्रतीति या तो सदा होती रहेगी, या कभी नहीं होगी, क्योंकि निमित्तशून्य भाव या तो जन्म नहीं लेता या तो शाश्वत होता है। इस प्रकार ‘यहाँ' ऐसी बुद्धिस्वरूप लिंग से जनित अनुमानप्रमाण से समवाय का ज्ञान प्राप्त होता है। *. अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां यः सम्बन्धः इहप्रत्ययहेतुः स समवायः (प्रशस्तपादभाष्य- कंदली- पृ० १४-३२४) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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