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________________ १९१ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ प्रदीपे, एवं विशेषेभ्य एवाऽण्वादौ विशिष्टप्रत्ययः नाऽण्वादिभ्यः” इत्यादिकम् । [ ] तदप्यसंगतम्, यतोऽशुचित्वं भावानां कल्पनासमारोपित् न पारमार्थिकमव्यवस्थितेस्तस्य। ___ तथाहि – यदेव कस्यचिद् श्रोत्रियादेर्द्रव्यमशुचित्वेन प्रतिभाति तदेव कापालिकादेः शुचित्वेन । न चैकस्य परस्परविरुद्धानेकरूपसमावेशो युक्तः एकत्वहानिप्रसक्तेः। भवतु वा पारमार्थिकं पदार्थानामशुचित्वम् तथापि न दृष्टान्त-दार्टान्तिकयोः साम्यम् यतः स्व( ?श्व)मांसाद्यशुचिद्रव्यसंसर्गाद् मोदकादयः भावाः प्रच्युतप्राक्तनशुचिस्वभावा अपर एवाऽशुचिरूपा उत्पद्यन्ते इति युक्तमेषामन्यसंसर्गजमशुचित्वम् न तु परमाण्वादिष्वेतत् सम्भवति तेषां नित्यत्वादेव प्राक्तनाऽविविक्तस्वरूपपरित्यागेनापरविविक्तस्वरूपतयाऽनुपपत्तेः। अत एव प्रदीपपटदृष्टान्तोऽप्यसंगतः पटादीनां प्रदीपादिपदार्थान्तरोपाधिकस्य रूपान्तरस्योत्पत्तेः, प्रकृते च तदसम्भवात् इति । अनुमानबाधितश्च विशेषसद्भावाऽभ्युपगमः। तथाहि - विवादाधिकरणेषु भावेषु विलक्षणप्रत्ययः तद्व्यतिरिक्तविशेषनिबन्धनो न भवति, व्यावृत्तप्रत्ययत्वात्, विशेषेषु व्यावृत्तप्रत्ययवत् इति । पूर्ववदस्य हेतोः प्रतिबन्धाधिकं वाच्यम् । तन्न विशेषविषय में कुछ प्रतीतियाँ अन्यनिमित्तक भी होती है, जैसे प्रदीप से पटादिविषयक प्रतीति होती है। किन्तु, पटादि से प्रदीप की प्रतीति नहीं होती। ऐसे ही, विशेषों के द्वारा ही अणु-आदि में भेद-प्रतीति होती है, न कि अणुआदि से विशेषों में।' – किन्तु यह अध्ययनादिगत विधान असंगत है, क्योंकि पदार्थों में कोई पारमार्थिक शुचित्व या अशुचित्व नहीं होता किन्तु कल्पनाप्रयुक्त होता है, क्योंकि इस में कोई नियत व्यवस्था नहीं होती। * शुचि-अशुचि भाव कल्पना की निपज कैसे ? * देखिये – कोई एक चीज ब्राह्मणादि को अपवित्र लगती है वही अघोरी बावाजी आदि को पवित्र भासती है। एक ही वस्तु में शुचित्व-अशुचित्व ये परस्पर विरुद्ध दो धर्म समाविष्ट होना ठीक नहीं है क्योंकि विरुद्धधर्मसमावेश से वस्तुभेद प्रसक्त होने पर वस्तु के एकत्व का भंग प्रसक्त होगा। कुछ समय के लिये मान लो कि पदार्थों में अशुचित्व पारमार्थिक है तो भी विशेषवादी को लाभ नहीं है। कारण, क्षणिकवाद में ही यह सम्भव है कि कुत्ते के माँस आदि अशुचिद्रव्यों का संसर्ग होने पर पूर्वक्षण के शुचि मोदकादि भाव स्वभावच्युत यानी नष्ट हो कर अन्य क्षण में अशुचि भाव उत्पन्न होते हैं, इस प्रकार अन्यसंसर्गजनित अशुचिता क्षणभंगवाद में हो सकती है, किन्तु आप के मत में परमाणु आदि तो नित्य द्रव्य माने गये हैं, नित्य द्रव्यों में विशेष के योग से पूर्वकालीन अविशिष्ट स्वरूप का त्याग करके उत्तरक्षण में विशिष्ट स्वभाव का उपादान सम्भव ही नहीं है अतः विशेष के योग से व्यावृत्ताकारबुद्धि जनकता उन में असम्भव है। यही कारण है कि प्रदीप-वस्त्र का दृष्टान्त भी विशेषसमर्थन में अनुकुल नहीं है। कारण, क्षणभंगवाद में प्रदीपादि अन्य अर्थरूप उपाधि के योग से प्रकाशितस्वरूप नये वस्त्रक्षण की उत्पत्ति सम्भव है, किन्तु प्रस्तुत में नित्य द्रव्य की विशिष्टरूप से उत्पत्ति सम्भव नहीं है। तदुपरांत, विशेषपदार्थ के अस्तित्व का स्वीकार प्रतिअनुमान से बाधित है। देखिये- विवादास्पद (परमाणु आदि) भावों के विषय में होने वाली विलक्षण प्रतीति अतिरिक्त विशेषपदार्थमूलक नहीं है क्योंकि व्यावृत्ताकारवाली है। उदा० प्रतिवादी के मतानुसार विशेषों में योगिजनों को जो परस्पर विलक्षण प्रतीति होती है वह अतिरिक्त विशेषमूलक नहीं होती, व्यावृत्ताकार जरूर होती है। इस अनुमानप्रयोग में हेतु की व्याप्ति आदि की चर्चा पूर्ववत् समझ लेना। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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