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________________ १९३ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ बाधकं प्रमाणम् । एवम् ‘इह' बुद्धिलिङ्गावसेयः समवायः। अध्यक्षबुद्ध्यवसेयत्वमपि तस्य केचन मन्यन्ते। तथाहि – अक्षव्यापारे सति ‘इह तन्तुषु पटः' इत्यादिप्रत्ययोत्पत्तेर्विशेषणीभूतस्य तस्य 'इह' बुद्ध्यध्यक्षावसेयता। समवायश्च न संयोगवद् भिन्नः किन्तु तल्लिङ्गाविशेषाद् विशेषलिङ्गाभावाच्च सत्तावत् सर्वत्र एक एव । अकारणत्वाच्च तद्वदेव नित्यः। अकारणत्वं च तत्कारणानुपलब्धेः सिद्धम् । ___अत्र प्रतिविधीयते - 'इह तन्तुषु पटः' इत्यादिका बुद्धिः स्वसमवायाहितवासनाप्रकल्पितैव न तु लोके तथोत्पद्यमानत्वेन सिद्धेति धर्म्यसिद्धेराश्रयासिद्धो हेतुः। तथाहि – यत्र नानात्वमुपलक्षितं भवेत् तत्राधाराधेयभावे सति 'इह' बुद्धिरुत्पद्यमाना लोके संवेद्यते, यथा 'इह कुण्डे दधि' इति । न च नानात्वं तन्तु-पटयोरुपलब्धिगोचरः इति कथं तत्र ‘इह' बुद्ध्युत्पादः ? न च स्वमतिप्रकल्पितस्य कार्यस्य कारणपर्यनुयोगः परं प्रति विधेयः। न चेच्छायाः पदार्थरूपानुरोधः, तस्याः स्वातन्यवृत्तित्वात्, ततोऽपि वस्तुव्यवस्थापने तेषामव्यवस्थाप्रसक्तेः भवत्परिकल्पितस्यापि वस्तुनोऽन्यथाऽन्यस्य प्रकल्पयितुं शक्यत्वात् । न केवलम् ‘इह तन्तुषु पटः' इत्यादिका बुद्धिर्लोके न संवेद्यते किन्तु विपर्ययेणैव तस्या उत्पादानुभवः। तथाहि-वृक्षे शाखा, पर्वते शिला इत्यादिका बुद्धिलॊके उत्पद्यमानत्वेन संवेद्यते । न च 'वृक्षे शाखा' इत्यादिकाऽपि मतिः समवायनिबन्धना, किन्तु विवक्षित कुछ लोग समवाय को प्रत्यक्षबुद्धिगोचर भी मानते हैं। वह इस तरह - इन्द्रिय सक्रिय होने पर ही 'यहाँ तन्तुओं में वस्त्र' ऐसा बोध उत्पन्न होता है, यहाँ तन्तुगत वस्त्र के विशेषणभूत सम्बन्धकार पदार्थ यानी समवाय ही प्रत्यक्षबुद्धि का गोचर बना है। प्रतियोगी-घट-वस्त्रादि के भेद से हालाँकि संयोग सम्बन्ध भिन्न भिन्न होता है, एवं अनयोगी भतल-जलादि के भेद से भी। किन्त समवाय को सत्ता जाति की तरह सर्वत्र एक ही माना जाता है। कारण, समवाय का अनुमापक 'यहाँ इस प्रकार की बुद्धि रूप' लिंग सर्वत्र एकसा होता है, एवं इस के अतिरिक्त उस का दूसरा कोई लिंग भी नहीं है। जाति का जैसे कोई उत्पादक कारण नहीं होता वैसे समवाय का भी, अत एव वह सत्ता की तरह नित्य माना गया है। जाति की तरह समवाय का भी कोई उत्पादक-कारण उपलब्ध नहीं है, अतः अनुपलब्धि से कारणाभाव सिद्ध होता है। * समवाय पदार्थ निषेध-उत्तरपक्ष * समवाय का प्रतिषेध – 'यहाँ तन्तुओं में वस्त्र' इत्यादि बुद्धि सिर्फ साम्प्रदायिकवासना की उपजमात्र है। लोक में इस तरह उत्पन्न होने वाली बुद्धि प्रसिद्ध ही नहीं है। बुद्धिस्वरूप धर्मी असिद्ध होने से उक्त स्वभाव हेतु में स्पष्ट ही आश्रयासिद्धि दोष उभरता है। स्पष्ट बात है कि जहाँ पृथक्त्व लक्षित होता है वहाँ ही एकदूसरे में आधार-आधेय भाव के रहते हुए 'यहाँ यह' ऐसी बुद्धि की उत्पत्ति लोकसंविदित होती है जैसे 'यहाँ कुण्डे में दहीं है' यह बुद्धि । तन्तु और वस्त्र में कभी भी भेद उपलब्धिगोचर नहीं हुआ तब कैसे ‘यहाँ' ऐसी अकृत्रिम बुद्धि जन्म पायेगी ? अपनी मति से कभी किसी कार्य की कल्पना कर लेने के बाद उसके कारण की जाँच के लिये दूसरे को प्रश्न करना उचित नहीं। इच्छा पदार्थ-अविनाभावि नहीं होती, क्योंकि इच्छावृत्ति स्वतन्त्र होती है। प्रमाण के बदले स्वतन्त्र इच्छा से वस्तु की व्यवस्था करने पर और अव्यवस्था बढेगी, चूँकि पर-प्रकल्पित वस्तु की अन्य के द्वारा अन्यप्रकार से कल्पना भी शक्य है। 'यहाँ तन्तुओं में वस्त्र' यह बुद्धि लोक में अनुभवसिद्ध तो नहीं है, उस से उलटी ही बुद्धि लोक में अनुभवसिद्ध है। देख लिजिये – लोक में तो 'शाखा में वृक्ष' ऐसी नहीं किन्तु 'वृक्ष में शाखा' तथा 'शिलाओं में पहाड' ऐसी नहीं किन्तु ‘पहाड में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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