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________________ १८६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् इत्यादिष्वपि वस्त्वन्तरकल्पनाप्रसक्तेः। न च तत्रापि तथाऽस्तु इति वक्तव्यम् वस्त्वन्तरस्य तन्निबन्धनस्य तत्र निषिद्धत्वात् । अतोऽनैकान्तिको हेतुः। सिद्धसाध्यता च समुदायिभ्योऽन्यत्वाङ्गीकरणे समुदायस्य तन्निबन्धनत्वाद् ब्राह्मणबुद्धेः तदग्रहे तद्बुद्ध्यभावात् पानकवदिति न वर्णादिभ्यो व्यतिरिक्तम् । तस्मात् शरीरोत्पत्तिकारणं श्रुतं तपो वा ब्राह्मणत्वं परिकल्पनीयं स्यात् । तत्र ब्राह्मणशुक्र-शोणितसंभूते शरीरविशेषे यदि ब्राह्मणत्वजातिः समवेता भवेत् ततः संस्कारभ्रंशे-ऽपि न ततो व्यावर्तेत, तेन संस्काराभावाद् व्रात्यो नाऽब्राह्मणो भवेत् । अथ संस्काररहितोऽपि व्रात्यो ब्राह्मण एव केवलं ब्राह्मणक्रियामकुर्वाणस्य भवत्यब्राह्मणव्यपदेशस्तत्र पुत्रस्येव पुत्रक्रियामकुर्वतः। तथाहि - 'अयमगौः अयमनश्वः अयममनुष्यः' इत्यादिव्यवहारो लोके सुप्रसिद्ध एव । न चैतावता तक्रियावैकल्येऽपि परमार्थतस्तस्य तथाभावः, प्रत्यक्षादिविरोधात् । एतस्यां च वस्तुव्यवस्थायां ब्राह्मणमातापित्रुत्पाद्यत्वस्य प्राधान्यात् गजादीनां शिक्षेव केवलमध्ययनादिका क्रिया सम्पद्यते । तथाऽभ्युपगमे च ब्रह्म-व्यास-मतङ्ग -विश्वामित्रप्रभृतीनां ब्राह्मणत्वं न स्यात् । न चाऽदृश्ये वस्तुनि निर्णयो होता है वैसे ही उन काष्ठादि से 'यह नगर है' ऐसा अनुगतव्यवहार सिद्ध होता है। यदि इस तथ्य का अस्वीकार करेंगे तो छ नगरीयों के समुदाय के लिये जो 'षण्णगरी' ऐसा अनुगत व्यवहार होता है उस के लिये भी नगरीयों से अतिरिक्त एक निमित्त की कल्पना का कष्ट करना होगा। यदि इस कष्ठ को सहर्ष झेलने के लिये आप तय्यार हो जायेंगे तो भी कोई सफलता नहीं मिलेगी क्योंकि नगरीयों के समुदाय से अतिरिक्त उस प्रतीतिजनक निमित्त सर्वमत में निषिद्ध है। तात्पर्य, ब्राह्मणत्वजाति के न होने पर भी विलक्षणबुद्धि रूप हेतु सम्भव होने से साध्यद्रोह का दोष प्रसक्त है। कदाचित् अतिरिक्त निमित्त का आग्रह हो तो सिद्धसाधन दोष सावकाश है। कारण, समुदाय के अंगों से अतिरिक्त समुदायात्मक अन्य वस्तु को उस विलक्षण बुद्धि के निमित्तरूप में मान लेंगे। तात्पर्य, वर्णविशेष आदि अंगो के समुदायरूप अतिरिक्त निमित्त से ही 'ब्राह्मण' बुद्धि का होना मान सकते हैं, क्योंकि वर्णविशेषादि अंगो के समुदाय के ग्रहण के विना 'ब्राह्मण' बुद्धि नहीं होती। उदा० विविध मद्यांगों के समुदाय के विना ‘पेया' का निर्माण नहीं होता। इस चर्चा से इतना स्पष्ट हो जाता है कि वर्णादि के समुदाय से अतिरिक्त कोई ब्राह्मणत्व जाति सत् नहीं है। फलतः जब ब्राह्मणत्व रूप नहीं है तब शरीरोत्पत्तिकारण (पित आदि) या वेदाध्ययन अथवा तपश्चर्यास्वरूप ही ब्राह्मणत्व की कल्पना करनी पडेगी। ब्राह्मणत्व की जातिरूप में कल्पना अनावश्यक है। * ब्राह्मणजन्य शरीर में ब्राह्मणत्व असंगत * उन में से ब्राह्मण पिता-माता के शुक्र-शोणित के योग से उत्पन्न शरीरविशेष में अगर ब्राह्मणत्व जाति के समवाय को मानेंगे तो संस्कार से भ्रष्ट होने के बाद भी जातिरूप होने से ब्राह्मणत्व की निवृत्ति संगत नहीं हो सकेगी। इससे यह फलित होगा कि संस्कार के अभाव में व्रात्यादि में ब्राह्मणत्व का अभाव हो ऐसा नहीं है। यदि ऐसा कहा जाय – “व्रात्य में संस्कार के विरह में भी ब्राह्मणत्व होता ही है, सिर्फ ब्रह्मक्रिया के न होने से उस के लिये 'अब्राह्मण' का व्यवहार होगा, जैसे कि पुत्रकर्त्तव्य का पालन न होने पर पुत्र के लिये भी अपुत्र का व्यवहार होता है। दुनिया में स्पष्टरूप से सुविदित तथ्य है कि क्षीर न देने पर गाय में 'अगौ' व्यवहार होता है, तथा तेजी से न दौडने पर अश्व में 'अनश्व' का तथा 'मानवता' के गुण न होने पर मानव में 'अमानव' का व्यवहार होता है। सिर्फ उन की उचित क्रिया न होने मात्र से, पारमार्थिकरूप से 'गाय' वगैरह 'अगौ' आदि नहीं हो जाते, उन को 'अगौ' आदि मानने में तो प्रत्यक्ष जातिरूप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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