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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ १८७ विधातुं शक्यः 'शूद्राद्युत्पाद्यत्वमस्य नास्ति' इति, अनादिगोत्रपद्धतौ च कामार्त्तत्वात् सर्वदा प्रमदानां कस्याश्चिद् व्यभिचारसम्भवात् कुतो योनिनिबन्धनब्राह्मण्यनिश्चयात् संस्कारस्याध्ययनादेश्चाऽविपर्ययस्तत्त्वनिश्चयः ? आगमस्य च तन्निश्चयनिबन्धनत्वेन कल्पितस्य रागादियुक्तपुरुषप्रणीतत्वेनाऽप्रामाण्यात् न निश्चयहेतुता। अपौरुषेयस्य च प्रतिव्यक्ति एवम्भूतार्थप्रतिपादनपरस्याऽनुपलम्भान्न ततोऽपि तन्निश्चयः । न चाऽविगानतस्त्रैवर्णिकप्रवादोऽत्र वस्तुनि प्रमाणम्, तस्यापि व्यभिचारित्वोपलब्धेः। दृश्यन्ते च बहवस्त्रैवर्णिकैरविगानेन ब्राह्मणत्वेन व्यवह्रियमाणा विपर्ययभाजः इत्यलमतिनिर्बन्धेन वचनमात्रगम्येऽर्थे । इति व्यवस्थितमेतत् - असत् सामान्यम् तत्साधकप्रमाणाभावात् बाधकोपपत्तेश्च । * विशेषपदार्थप्ररूपणम् * नित्यद्रव्यवृत्तयः परमाण्वाकाशकालदिगात्ममनस्तु वृत्तेरत्यन्तव्यावृत्तबुद्धिहेतवो विशेषाः। ते च परमाणूनां जगद्विनाशारम्भकोटिभूतत्वात् मुक्तात्मनां मुक्तमनसां च संसारपर्यन्तरूपत्वाद् अन्तत्वम् तेषु भवाः = अन्त्या इत्युच्यन्ते तेषु स्फुटतरमालक्ष्यमाणत्वात्, वृत्तिस्त्वेषां सर्वस्मिन्नेव परमाण्वादौ नित्ये द्रव्ये विद्यत एव, अत एव 'नित्यद्रव्यवृत्तयः अन्त्याः ' इत्युभयपदोपादानम् । अपरे तु 'उत्पादविनाशआदि अनेक प्रमाणों का विरोध है। ऐसी व्यवस्था मान्य करने पर प्राधान्य तो ब्राह्मण माता-पिता से उत्पत्ति का ही रहेगा और अध्ययनादि क्रिया तो सिर्फ 'ब्राह्मण' ऐसे व्यवहार के लिये ही काम आयेगी, जैसे भारवहनादि की शिक्षा गजादि के व्यवहार में उपयोगी होती है' – किन्तु यह व्यवस्था उचित नहीं है क्योंकि ब्राह्मण माता-पिता से उत्पन्न न होने पर भी ब्रह्मा, व्यास, मतङ्ग, विश्वामित्र वगैरह में ब्राह्मणत्व का लोप प्रसक्त हुआ यह बडा दोष है। उपरांत, 'ब्राह्मणमातापिताजन्यत्व' यह अदृश्य चीज है, अतः उस के आधार पर ब्राह्मणत्व का निर्णय करना कठिन हो जाता है, अतः प्रसिद्ध ब्राह्मण में 'शूद्रादि से अजन्यत्व' नहीं ही है ऐसा निर्णय कैसे हो सकता है ? गोत्रपद्धति को जब आप अनादि मानते हैं, तो हो सकता है कि स्त्रीवर्ग के सर्वकाल में कामातुर होने के कारण ब्राह्मण माने जाने वाले व्यक्ति की पूर्वज वंश परम्परा में कोई महिला व्यभिचारी होने का इनकार नहीं किया जा सकता। इस स्थिति में जन्मयोनिमूलक ब्राह्मणत्व के निश्चय से संस्कार और अध्ययनादि के आधार पर तत्त्व के निश्चय का सम्भव ही कहाँ है ? यदि कहा जाय कि - जिन लोगों के बारे में ब्राह्मण-क्षत्रिय या वैश्य होने में किसी को कोई विवाद नहीं है उन के लिये ब्राह्मणादि होने का लोकप्रवाद ही प्रमाण है - तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि लोकप्रवाद में सर्वथा अविवाद कहीं भी नहीं होता. तथा उस में भी कई बार व्यभिचार उपलब्ध होता है. दिखाई पडता है कि बहुत से ब्राह्मणक्षत्रिय-वैश्यों के लिये उन के ब्राह्मणत्वादि में विवाद न होने पर भी वास्तव में वे शूद्रादि होते हैं। अतः सिर्फ आपके कहने मात्र से किसी को ब्राह्मण आदि मान लेने का आग्रह अनुचित है। निष्कर्ष :- ‘सामान्य' असत् है क्योंकि उस को सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण नहीं है, उल्टे उस के लिये प्रबल बाधक भी मौजूद है। * अन्त्य नित्यद्रव्यवृत्ति विशेषपदार्थ * न्याय-वैशेषिक दर्शन में 'विशेष' संज्ञक पंचम पदार्थ माना गया है। उस की यह व्याख्या है – परमाणु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, मन ये नित्य द्रव्य कहे जाते हैं, उन में ही ये 'विशेष' पदार्थ रहते हैं। विशेष का मतलब है व्यावर्त्तक । अत्यन्त-व्यावृत्ताकारबुद्धि के कारक होने से वे 'विशेष' कहे जाते हैं। विशेषों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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