SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चमः खण्डः का० ४९ दृष्टान्तस्य च साध्यान्वितत्वेन पूर्वं प्रसादितत्वान्नासिद्धो दृष्टान्तः । तदेवं बाधकप्रत्ययस्याऽभावोऽसिद्धः, अनेकप्रकारस्य बाधकस्य प्रदर्शितत्वात् । भवतु वा गोत्वादि सामान्यम् कर्कादिविलक्षणत्वेन शाबलेयादीनां प्रतिपत्तेः । ब्राह्मणत्वादि सामान्यं तूपदेशमात्रव्यंग्यम् गवाश्वादिवद् ब्राह्मणेतरविशेषप्रतिपत्त्यभावात् । न चोपदेशसहायाध्यक्षगम्यं तत्, अध्यक्षविषये उपदेशापेक्षाऽयोगात्, तद्योगे वोपदेशस्यैव केवलस्य व्यापार इत्युपदेशमात्रव्यंग्यतैव । अथ 'वर्णविशेषाध्ययनाचार-यज्ञोपवीतादिव्यतिरिक्तनिमित्तनिबन्धनं 'ब्राह्मण' इति ज्ञानम् तन्निमित्तबुद्धिविलक्षणत्वात्, गवाश्वादिज्ञानवत्' इति लिङ्गात् प्रतिपत्तेः ब्राह्मणत्वादिसामान्यस्य नागममात्रव्यंग्यत्वमिति। असदेतत्, नगरादिज्ञानवद् व्यतिरिक्तनिबन्धनाभावेऽपि तथाभूतज्ञानस्य कथंचिदुपपत्तेः । न हि नगरादिज्ञानेऽपि व्यतिरिक्तं द्रव्यान्तरमस्ति यदेकाकारज्ञाननिबन्धनं भवेत् । काष्ठादीनामेव प्रत्यासत्त्या कयाचित् प्रासादादिव्यवहारनिबन्धनानां नगरादिव्यवहारनिबन्धनत्वोपपत्तेः, अन्यथा 'षण्णगरी' है अतः उस दृष्टान्त में साध्य न होने का प्रश्न नहीं है, दृष्टान्त उभयपक्ष सिद्ध है । इस ढंग से अनेक प्रकार के बाधक अनुमान नित्य सामान्यपक्ष में प्रदर्शित हैं अतः बाधकप्रतीति का अभाव असिद्ध है। * ब्राह्मणत्व स्वतन्त्र जाति नहीं है * यदि आप का अति आग्रह है कि गोत्व सामान्य को मानना ही पडेगा क्योंकि शबलवर्णादि गोपिण्डों में अश्वादि से विलक्षणता का भान उस के विना नहीं हो सकता तो चलो, एक बार कुछ सीमा तक गोत्वादि सामान्य का स्वीकार कर लिया, किन्तु ब्राह्मणत्वादि को भी जातिरूप में मान लेना यह अनुचित है, क्योंकि वह तो जातिवादीयों के स्वरचित आगमोपदेश के विना ज्ञात नहीं होता, गो- अश्व में जैसे स्पष्ट भेद प्रतीत होता है वैसे ब्राह्मण और अब्राह्मण मनुष्य में नहीं होता । यदि कहें कि ब्राह्मणत्व जाति सिर्फ आगमोपदेशगम्य नहीं है किन्तु आगमोपदेश श्रवण के बाद उस से सहकृत प्रत्यक्ष का भी गोचर है तो यह विधान गलत है, क्योंकि प्रत्यक्षगोचर वस्तु के लिये कभी उपदेश की आवश्यकता नहीं होती । यदि उपदेश आवश्यक है तो उस का मतलब यही है कि ब्राह्मणत्व जाति के भान के लिये उपदेश ही सव्यापार है, अर्थात्, वह एकमात्र उपदेश से ही अभिव्यंग्य है। * ब्राह्मणत्व ज्ञान में अतिरिक्त निमित्त अमान्य * Jain Educationa International १८५ - यदि यह कहा जाय 'शरीर का वर्णविशेष, वेदादि का अध्ययन, यज्ञादि का आचार, जनोऊ इत्यादि बाह्यनिमित्तों से अतिरिक्त निमित्त से 'यह ब्राह्मण है' ऐसा ज्ञान होता है, क्योंकि वर्णविशेषादि निमित्तों के ज्ञान से यह ज्ञान विलक्षण है, जैसे अश्वज्ञान से गो का ज्ञान विलक्षण होता है तो वह 'गाय' इस प्रकार गोत्वजातिविषयक होता है । इस प्रकार के अनुमान से ब्राह्मणत्व जाति का अनुमिति ज्ञान भी हो सकता है, अत एव वह सिर्फ आगममात्रबोध्य नहीं है । तो यह प्रतिपादन गलत है, क्योंकि 'ब्राह्मण' इस प्रकार का ज्ञान अतिरिक्त निमित्त के विना भी किसी प्रकार उन्हीं निमित्तों के द्वारा हो सकता है। जैसे प्रासादआपणादि के निमित्तों से अतिरिक्त निमित्त के विना भी 'यह नगर है' ऐसा ज्ञान आप को भी मान्य है क्योंकि आप इस ज्ञान को नगरत्वजातिमूलक नहीं मानते। 'नगर - नगर' ऐसा जो अनुगताकार ज्ञान होता है उस के पीछे कोई द्रव्यान्तरस्वरूप अतिरिक्त निमित्त नहीं होता किन्तु काष्ठ - सिमेन्ट आदि ही निमित्त होते हैं। जैसे किसी एक प्रकार के सम्बन्ध से काष्ठ - इँट आदि द्रव्यों से ही 'यह प्रासाद है' ऐसा अनुगतव्यवहार - For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy