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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् इति दृश्यानुपलम्भो बाधकं प्रमाणम् । तथाहि – उपलब्धव्यक्तिसमवेतसामान्यस्वरूपादुपलब्धादव्यतिरिक्तं चेद् व्यक्त्यन्तरालवर्ति सामान्यरूपम् तदा तस्यापि ग्रहणं भवेत् गृहीतादभिन्नत्वात् गृहीतस्वरूपवत् । अथ न तस्योपलम्भः, तथा सति अनुपलब्धरूपाव्यतिरेकात् तद्वत् उपब्धव्यक्तिसमवायिनोऽपि रूपस्योपलम्भो न स्यात् । अथोभयरूपताऽभ्युपगम्यते तदा रूपभेदात् तद्वस्तुभेदः परस्परविरुद्धधर्माध्यासात् । न ह्यन्योन्यविरुद्धरूपग्रहणाऽग्रहणधर्माध्यासितमपि वस्तु एकं युक्तम् अतिप्रसंगात्, विश्वस्यैवमेकद्रव्यताप्रसक्तेः सहोत्पाद-विनाशाद्युपपत्तिः स्यादन्यथा 'एकम्' इति नाममात्रमेव भवेत् न च तत्र विवादः।
नित्यत्वैकत्वरूपाभ्युपगमे च सामान्यस्याऽनेकशो बाधकं प्रतिपादितमेवानुमानम् ये क्रमित्वाऽनुगामित्व-वस्तुत्वोत्पत्तिमत्त्वादिधर्मोपेतास्ते परपरिकल्पितनित्यैकसर्वगतसामान्यतो नात्मलाभमासादयन्ति यथा पाचकादिप्रत्ययाः, तथा चामी गवादिप्रत्यया इति विरुद्धव्याप्तोपलब्धिः, नित्यभावविरुद्धाऽनित्यताभावेन क्रमित्वादेर्याप्तत्वात् नित्यस्य च क्रमाऽक्रमाभ्यामर्थक्रियाविरोधाद् नानैकान्तिकता हेतोः, व्यक्ति में तथा दो व्यक्ति के मध्य भाग में भी उस का उपलम्भ प्रसक्त होगा। जब उपलम्भ नहीं होता है तो दृश्य के अनुपलम्भ से उस का अभाव सिद्ध होता है। कैसे यह देखिये - दृष्टिगोचर व्यक्ति में समवेत सामान्य जो कि आप को उपलब्ध हो रहा है उससे, दो व्यक्ति के मध्यभाग में रहनेवाला सामान्य अव्यतिरिक्त होगा तो उस का उपलम्भ भी प्रसक्त होगा क्योंकि व्यक्ति में गृहीत सामान्य से वह अभिन्न है, जैसे गृहीत सामान्य का स्वरूप। किन्तु यदि उस का उपलम्भ नहीं होता है तो अनुपलब्ध सामान्य से व्यक्तिसमवेत सामान्य अभिन्न होने से उस का भी अनुपलम्भ प्रसक्त होगा। यदि इस स्थिति में एक सामान्य में उपलब्ध-अनुपलब्ध उभयरूपता का स्वीकार करेंगे तो स्वरूपभेद से सामान्य में वस्तुभेद प्रसक्त होगा, क्योंकि परस्पर
द धर्मों का एकत्र अध्यास वस्तुभेदसाधक होता है। अन्योन्यविरोधि उपलब्ध-अनुपलब्ध धर्मयुगल से अध्यासित वस्तु को एक ही मानना ठीक नहीं है क्योंकि तब सारे विश्व में वस्तुभेद का लोप हो कर एकद्रव्यरूप विश्व प्रसक्त होगा। और एकद्रव्यरूपता प्रसक्त होने से सारे विश्व की एक साथ उत्पत्ति और विनाश भी प्रसक्त होगा, क्योंकि उस के विना विश्व का एकत्व सिर्फ बोलने के लिये नाम मात्र ही होगा, नाम तो चाहे कुछ भी बोला जाय - हमें उस में कोई विवाद नहीं है।
* जाति की नित्यता एवं एकत्व में बाधकप्रदर्शन * सामान्य को एक एवं नित्य मानने के पक्ष में बाधक अनुमान का प्रदर्शन कई बार हो चुका है - जैसे क्रमिकत्व, अनुगामिता, वस्तुत्व, उत्पत्ति आदि धर्मों से युक्त जो धर्मी होते हैं वे प्रतिपक्षकल्पितनित्यएक-व्यापक सामान्य के द्वारा आत्मलाभ नहीं प्राप्त करते, उदा० पाककर्ता आदि विषयक प्रतीतियाँ ; ये गाय आदि विषयक प्रतीतियाँ भी क्रमित्वादिधर्माश्लिष्ट हैं अतः उन को आत्मलाभ की प्राप्ति में सामान्य की अपेक्षा नहीं होती। यहाँ नित्यसामान्यसापेक्षता की विरुद्ध है नित्य सामान्यनिरपेक्षता, उस से व्याप्त है क्रमित्वादिधर्मयुक्तता, उस की उपलब्धि को यहाँ हेतु किया गया है। तात्पर्य, नित्यत्व के विरोधी अनित्यत्व से व्याप्त है क्रमित्वादिधर्म, उस की उपलब्धि हेतुभूत है। इस हेतु में साध्यद्रोह का आरोप अशक्य है, क्योंकि क्रमशः या एकसाथ अर्थक्रिया के विकल्पों का नित्यत्व के साथ स्पष्ट ही विरोध है अतः क्रमित्वादिधर्मोपेत हेतु को नित्य सामान्य के साथ जन्य-जनकभाव घट नहीं सकता। पाककर्त्तादिविषयक प्रतीतियों में नित्यजन्यत्व का पहले निरसन किया हुआ
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