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पञ्चमः खण्डः - का० ४९
१८३ बाधकस्य प्रदर्शितत्वात् । यदपि एकत्वसाधनं सामान्यस्य, तत्रापि तस्य प्रत्येकसमवेतत्वाऽसिद्धेराश्रयाऽसिद्धो हेतुः। स्वरूपाऽसिद्धश्च एकबुद्धिग्राह्यत्वस्य परमार्थतस्तत्राऽसिद्धेः शाबलेयादिषु 'समानाः' इति बुद्ध्युत्पत्तेः। ब्राह्मणादिनिवर्त्तनं च परमार्थतो नैकमस्ति तस्याऽवस्तुत्वात्, अतः साध्यविकलमुदाहरणम् । कल्पनाशिल्पिघटिते चैकत्वे साध्ये सिद्धसाध्यता, अपोहस्य कल्पनानिमित्तस्यैकत्वेनेष्टेः।
'न चात्र कारणदोषोऽस्ति' इत्येतदपि असिद्धम् अनाद्यविद्यावासनास्वरूपस्य कारणदोषस्य सद्भावात् । बाधकसद्भावश्च 'न च याति' इत्यादिना प्रदर्शितः। तथाहि - ये यत्र नोत्पन्नाः नापि प्रागवस्थायिनः नापि पश्चात् अन्यतो देशादागतिमन्तस्ते तत्र न वर्तन्ते नापि उपलभ्यन्ते यथा रासभशिरसि तद्विषाणादयः, तथा च सामान्यं तच्छून्यदेशोत्पादवति शाबलेयादिके वस्तुनि – इति व्यापकानुपलब्धिः। न चायमनैकान्तिको हेतुः तत्र वृत्त्युपलम्भयोः प्रकारान्तराऽसम्भवात् । तच्च स्वाश्रयमात्रव्यापित्वाऽभ्युपगमे गोत्वादिजातेर्बाधकं प्रमाणं प्रदर्शितम् । सर्वसर्वगतत्वाभ्युपगमे तु तस्या एकस्मिन् व्यक्तिभेदे ग्रहणे विजातीयव्यक्तिभेदे व्यक्त्यन्तराले चोपलम्भः स्यात् अनुपलम्भात्तु तदभाव नहीं है' यह विधान भी जूठा सिद्ध होता है क्योंकि प्रतिअनुमानरूप बाधक का प्रदर्शन किया जा चुका है। सामान्य में एकत्व का साधक जो प्रयोग कहा गया था उस में हेतु ही आश्रयासिद्ध है क्योंकि प्रत्येक में परिसमाप्त सामान्यरूप पक्ष ही असिद्ध है। तथा उस हेत में (एकाकारबद्धिग्राह्यत्व हेत में) स्वरूपासिद्धि दोष भी है. क्योंकि शबलवर्णादि को देख कर 'ये समान है' ऐसी बुद्धि तो होती है लेकिन 'ये एक हैं' ऐसी बुद्धि नहीं होती। अतः एकाकारबुद्धिग्राह्यत्व परमार्थरूप से वहाँ असिद्ध है। तथा, जो ब्राह्मणादि की व्यावृत्ति का दृष्टान्त दिया है उस में साध्यशून्यता का दोष है, क्योंकि व्यावृत्ति स्वयं ही वस्तुभूत नहीं है तो पारमार्थिक एकत्व की तो उस में बात ही कहाँ ? हाँ, जैसे हमें अपोह में काल्पनिक एकत्व इष्ट है वैसे आप के कल्पित सामान्य में कल्पनामूलक एकत्व की सिद्धि अभिप्रेत हो तो सिद्धसाधन का कष्टमात्र है।
* अभेदग्राहक अध्यवसाय भ्रान्त क्यों ? * भिन्न पदार्थों में अभेदग्राही अध्यवसाय को भ्रान्त सिद्ध करनेवाला कोई कारणदोष नहीं है यह विधान भी असिद्ध है। क्योंकि अनादिकालीन अविद्या से जनित वासना ही वहाँ दुष्ट कारण के रूप में मौजूद है। 'न याति न च तत्राऽसीत्' इस “प्र. वा." की कारिका के द्वारा उस अध्यवसाय में बाधकप्रदर्शन किया जा चुका है। फिर से देखिये - जो भाव जहाँ न तो उत्पन्न होते हैं, न पूर्वावस्थित होते हैं और न पीछे से किसी अन्य देश से वहाँ आगमन करते हैं वे न तो वहाँ वर्त्तमान हैं न वहाँ उपलब्ध होते हैं। उदा० गधे के सिर पर सींग-चूडा आदि। प्रस्तुत में सामान्यशून्य देश में उत्पन्न होनेवाले शबलवर्णादि गोपिण्ड रूप वस्तु में सामान्य की भी गधेसींग जैसी ही स्थिति है अतः वह असत् सिद्ध होता है। इस प्रयोग में सत्ता अथवा उपलब्धि का व्यापक अर्थ है उत्पत्ति, पूर्वावस्थिति और अन्यदेश से प्राप्ति, तीन में से एक ; उन व्यापक की अनुपलब्धि यहाँ हेतुरूप में प्रस्तुत है। यह हेतु साध्यद्रोही नहीं है, क्योंकि किसी भाव की किसी एक स्थान में वृत्ति अथवा उपलम्भ के पीछे उस की वहाँ उत्पत्ति, पूर्वावस्थिति अथवा पश्चादागमन इन में से कोई एक प्रकार होता ही है, और किसी प्रकार का सम्भव नहीं है। अपने आश्रयमात्र में ही व्यापकता, गोत्वादि जाति में मंजूर रखने के पक्ष में भी यही बाधक प्रमाण है। सामान्य को सर्वत्र सर्वगत यानी व्यापक मानने के पक्ष में बाधक प्रमाण यह है – किसी एक व्यक्तिविशेष में सामान्य का ग्रहण होने पर विजातीय अन्य
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