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________________ १८२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् न्तस्य । अन्यालम्बनत्वेऽपि साध्ये संनिहितशाबलेयादिपिण्डाध्यवसायित्वेन तस्याः संवेदनात् दृष्टान्तस्य च साध्यविकलता पूर्ववत् । अथ शाबलेयाऽसन्निधौ बाहुलेयादिसंनिधानप्रवृत्ता या बुद्धिः सा ततोऽन्यालम्बनेति पक्षस्तदा सिद्धसाध्यता। अथ साक्षात् वस्तुसदालम्बनेति साध्यते तदानैकान्तिकता हेतोः, नहि परमार्थतोऽस्या वस्तुसदालम्बनमस्तीति प्रसाधितत्वात् । ____ यदपि प्रत्येकपरिसमाप्तार्थविषयत्वसाधनम् तत्रापि सामान्येन साध्ये सिद्धसाध्यता प्रतिपदार्थमतदूपपरावृत्तवस्तुरूपाध्यवसायेनास्याः प्रवृत्तेः। अथ वस्तुभूत-प्रत्येकपरिसमाप्त-नित्यैकसामान्याख्यपदार्थविषयत्वं साध्यते तदा दृष्टान्तस्य साध्यविकलताऽनैकान्तिकता च हेतोः तथाविधेन साध्यते हेतोः क्वचिदप्यन्वयाऽसिद्धेः। एकस्य च क्रमवत्सु बहुषु सर्वात्मना परिसमाप्तत्वे सर्वव्यक्तिभेदानामन्योन्यमेकरूपताप्रसक्तिः एकव्यक्तिपरिनिष्ठितस्वभावसामान्यसंसृष्टत्वात् एकव्यक्तिरूपवत्, सामान्यस्य वाऽनेकरूपतापत्तिः। युगपदनेकवस्तुपरिसमाप्तात्मरूपत्वादतिदूरदेशावस्थितानेकभाजनव्यवस्थितानेकाम्रादिफलवत् इत्यनुमानबाधः। अत एव 'न चात्र बाधकः प्रत्ययोऽस्ति' इति यदुक्तम् तदपास्तम् बुद्धि में घटजन्यत्व है तभी तो ‘घट में पार्थिवबुद्धि' ऐसा कहा जाता है तब उस में घटजन्यत्व का अभाव कैसे हो सकता है ? तजन्यताभाव के बदले 'अथवा' कर के जो ‘अन्यालम्बनता' को साध्य दिखाया गया है उस के बारे में यह सोचिये कि यदि आप संनिहितशबलवर्णगोपिण्डबुद्धि को अन्य यानी असंनिहितगोपिण्डादिविषयक सिद्ध करना चाहते हैं तो स्पष्ट ही अनुभव का विरोध प्रसक्त होगा, क्योंकि वहाँ तो ऐसा ही संवेदन होता है कि यह गोबुद्धि संनिहित शबलवर्णादिगोपिण्ड को ही अध्यवसित करती है। तथा, घट में होने वाली पार्थिव बुद्धि तो उसी घट को आलम्बन करती है न कि अन्य घट को, अतः वह दृष्टान्त भी पूर्ववत् साध्यविहीन है। यदि शबलवर्णादि संनिहित न होने पर शबलवर्णादि से अन्य यानी बहुल (कृष्ण)वर्णादि से जब वह बुद्धि प्रवृत्त हो उस वक्त अगर उस में आप शबलवर्णादि से अन्य आलम्बन को सिद्ध करना चाहेंगे तो उस में किसी को भी विवाद न होने से सिद्धसाधनायास होगा। यदि उस गोबुद्धि में आप साक्षात् वस्तुसत्तावलम्बिता सिद्ध करना चाहेंगे तो हेतु साध्यद्रोही ठहरेगा, क्योंकि पहले यह बताया गया है कि सविकल्प निश्चयबुद्धि पारमार्थिकरूप से वस्तुसत्तावलम्बि कभी नहीं होती, अर्थात् साध्य न होने से हेतु रहेगा तो साध्यद्रोही कहलायेगा। * प्रत्येकसमवेतार्थविषयत्व में दोषोद्भावन * गोबुद्धि में प्रत्येकसमवेतार्थविषयकत्व की सिद्धि के लिये जो प्रयोग दिखाया है उस में यदि सामान्य से साध्यसिद्धि अभिप्रेत हो तो सिद्धसाधन का कष्टमात्र है। कारण, गोनिश्चय प्रत्येक पदार्थ में अतत्स्वरूपव्यावृत्तिमयवस्तु को ही अध्यवसित कर के प्रवृत्त होती है। यदि आप स्वतन्त्रविधया प्रत्येक व्यक्ति में समवेत वस्तुभूत एक नित्य 'सामान्य' पदार्थ को उस बुद्धि के विषयरूप में सिद्ध करना चाहते हैं तो दृष्टान्त में साध्यशून्यता दोष होगा और तथाविध साध्य के साथ कहीं भी हेतु में व्याप्ति सिद्ध न होने से, हेतुसाध्यद्रोही भी होगा। यदि एक सामान्य को क्रमिक अनेक पदार्थों में पूर्णतया समाविष्ट मानेंगे तो सभी प्रकार की व्यक्तियों में परस्पर एकरूपता (एकत्व) प्रसक्त होगी, क्योंकि एकव्यक्ति में परिसमाप्तस्वभाववाले एक ही सामान्य से सर्वव्यक्ति आश्लिष्ट है जैसे एकरूप से आश्लिष्ट एक व्यक्ति। अथवा प्रति व्यक्ति परिपूर्णरूप से समाविष्ट न होने के कारण जितनी व्यक्ति उतने सामान्य मानना होगा, जैस एक दूसरे से दूर दूर रहे हुए भाजनों में परिसमाप्त आम्र अनेक होते हैं। इस प्रकार सामान्य में प्रत्येकपरिसमाप्ति अनुमान में प्रति-अनुमानबाधा मौजूद है। इसी कारण से, 'यहाँ कोई बाधक प्रतीति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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