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पञ्चमः खण्डः - का० ४९
१८१ पिण्डभेदेषु गोबुद्धिरेकगोत्वनिबन्धना। गवाभासैकरूपाभ्यामेकगोपिण्डबुद्धिवत् ।। न शाबलेयाद्भोबुद्धिः ततोऽन्यालम्बनाऽपि वा। तदभावेऽपि सद्भावाद् घटे पार्थिवबुद्धिवत् ।। प्रत्येकसमवेतार्थविषयैवाथ गोमतिः। प्रत्येकं कृत्स्नरूपत्वात् प्रत्येकव्यक्तिबुद्धिवत् ।। प्रत्येकसमवेताऽपि जातिरेकैव बुद्धितः। नञ्युक्तेष्विव वाक्येषु ब्राह्मणादिनिवर्त्तनम् ।। नैकरूपा मतिर्गोत्वे मिथ्या वक्तुं च शक्यते । नात्र कारणदोषोऽस्ति बाधकः प्रत्ययोऽपि वा ।। इति ।
अत्र प्रथमसाधने साध्यविकलमुदाहरणम् गोत्वस्यैकस्य तत्राऽसिद्धेस्तन्निबन्धनत्वस्यैकगोपिण्डविषयबुद्धेरप्यसिद्धत्वात् । अथ सामान्येनैकनिबन्धनत्वमात्रं साध्यते तदा सिद्धसाध्यता, विजातीयव्यवच्छेदेन कल्पितैकाऽगोव्यावृत्तिनिबन्धनत्वस्येष्टत्वात् । 'न शाबलेयागोबुद्धिः' इत्यत्रापि साक्षात् तदुत्पत्तिनिषेधे साध्ये सिद्धसाध्यता तत्स्वलक्षणानुभवाहितसंस्कारसंकेतादिव्यवहितत्वात्तस्याः। अथ परम्परयाऽपि 'ततो न भवति' इति साध्यते तदाऽनुमानबाधः प्रतिज्ञायाः साध्यविकलता च दृष्टाहै ? जब दोनों में से एक भी उस बुद्धि को मिथ्या सिद्ध करने वाला निमित्त मौजूद नहीं है तो उस को भ्रान्त कैसे कह सकते हैं ? कहा है श्लोकवार्तिक में - ____“भिन्न पिण्डो में 'गाय' बुद्धि एकगोत्वमूलक होती है, क्योंकि गोआभासिक होती है, अथवा एकरूप (एकाकार) होती है, जैसे एक गोपिण्ड में 'गाय' बुद्धि ।।" - "गाय-बुद्धि शबलवर्णपिण्ड से नहीं होती, अथवा उस से अतिरिक्त पदार्थ के आलम्बन से होती है, क्योंकि उस के अभाव में भी होती है जैसे घट मे पार्थिव-बुद्धि ।।" (तथा) “गोबुद्धि प्रत्येक में समवेत अर्थ की उद्भासक है, क्योंकि वह प्रत्येक के बारे में अखण्डाकारग्राही है, जैसे प्रत्येक व्यक्तिग्राही बुद्धि ।” “प्रत्येक पिण्ड में रहते हुए भी जाति एक ही होती है क्योंकि एकाकारबुद्धि होती है, जैसे नगर्भित वाक्यों में ब्राह्मणादि की व्यावृत्ति ।' – “गोत्वविषयक एकाकार प्रतीति भ्रमात्मक नहीं है, क्योंकि न तो उस में कोई कारणदोष है, न बाधक प्रतीति है।।"
* कुमारिलप्रदर्शित अनुमानों में दोषपरम्परा * ___ कुमारिल के प्रतिवादी कहते हैं कि 'गाय' बुद्धि में गोत्वमूलकता सिद्ध करनेवाले प्रथम प्रयोग में साध्याप्रसिद्धि होने से दृष्टान्त साध्यहीन है क्योंकि एक गोत्व अभी तक असिद्ध होने से एक गोपिण्डविषयकबुद्धिरूप उदाहरण में एकगोत्वमूलकत्व मौजूद नहीं है। यदि विशेषरूप साध्य न कर के साधारणरूप से सिर्फ एकपदार्थमूलकत्व को ही साध्य किया जाय तो सिद्धसाधनप्रयास होगा, क्योंकि विजातीयों के व्यवच्छेदपूर्वक काल्पनिक एक अगोव्यावृत्तिमूलकत्व हमें भी इष्ट है। 'शबलवर्ण से 'गाय' बुद्धि उत्पन्न नहीं होती' ऐसे विधान में क्या तात्पर्य है ? यदि ‘साक्षात् शबलवर्ण से उत्पत्ति न होने' का सिद्ध करना चाहते हैं तो यहाँ भी सिद्धसाधनायास है क्योंकि हम मानते हैं कि 'गाय' ऐसी निश्चयबुद्धि साक्षात् गोस्वलक्षण से उत्पन्न नहीं होती किन्तु व्यवधान से, यानी गोस्वलक्षण के अनुभव से निष्पन्न संस्कार और संकेतादि के व्यवधान से ही वैसा निश्चय उत्पन्न होता है। यदि आप ऐसा सिद्ध करना चाहते हैं कि गोबुद्धि परम्परा से भी शबलवर्णादिपिण्डजन्य नहीं होती, तब तो प्रतिज्ञा में प्रतिअनुमान की बाधा और दृष्टान्त में साध्यशून्यता ये दोष होंगे। कारण, 'गाय' - निश्चय शबलवर्णादि पिण्ड से जन्य है क्योंकि उस के अन्वय-व्यतिरेक सहचार से अनुविद्ध है जैसे शबलवर्णप्रतीति' इस अनुमान से आप के अनुमान की प्रतिज्ञा बाधित हो जाती है। तथा, आपने उस अनुमान प्रयोग में घट में (यानी घटविषयक) पार्थिवबुद्धि का जो दृष्टान्त दिया है, उस में तो साध्य भी नहीं है क्योंकि उस
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