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________________ १७८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ___“तस्य शक्तिरशक्तिर्वा या स्वभावेन संस्थिता । नित्यत्वादचिकित्स्यस्य कस्ता क्षपयितुं क्षमः ?"। इति । ___ अत एवास्य व्यक्तिषु वृत्तिरप्यनुपपन्ना। तथाहि – वृत्तिरस्य भवन्ती स्थितिलक्षणा वा भवेत्, अभिव्यक्तिलक्षणा वा ? स्थितिरपि निःस्वभावताप्रच्युतिरभ्युपगम्यते आहोस्विदधोगतिप्रतिबन्धस्वरूपा ? तत्र न तावदाद्यः पक्षः, सामान्यस्य नित्यतया स्वभावाऽप्रच्युतेः स्वतः सिद्धत्वात् । नाप्यधोगतिप्रतिबन्धस्वरूपा स्थितिस्तत्र सम्भविनी, अमूर्त-सर्वगतत्वाभ्यां निष्क्रियत्वात् स्वत एवाधोगमनाऽसम्भवात् प्रतिबन्धकानां वैयर्थ्यात् । न च सामान्यस्य स्वव्यक्तिषु समवायः स्थितिरभ्युपगन्तव्या, तस्यैव विचार्यमाणत्वात् । तथाहि-अयुतसिद्धानामाश्रयाश्रयिभावो यः सम्बन्धः 'इह' इतिप्रत्ययहेतुः स समवायः परैरभ्युपगतः। 'आश्रितत्वं च सामान्यस्य व्यक्तिप्रतिबद्धस्थितित्वेन वा, तदभिव्यंग्यतया वा' इत्येतदेव पर्यालोचयितुं प्रक्रान्तम् परस्पराऽसंकीर्णरूपाणां भावानामकिञ्चित्करार्थान्तरसमवायाऽयोगात्, योगे वा सर्वः सर्वस्य समवायः प्रसज्येत । तथाहि – व्यावृत्तस्वरूपान् भावान् संश्लेषयन् पदार्थः समवायः प्रकल्पितः। न चार्थान्तरभावेऽपि स्वात्मव्यवस्थिता भावाः परस्परस्य स्वभावमात्मसात्कुर्वन्ति । न नाम नहीं लेगा। उस का स्वरूप चाहे समर्थ हो या असमर्थ, किन्तु अन्य के द्वारा उस में किसी भी प्रकार के परिवर्तन का सम्भव नहीं है, अन्यथा उस के नित्यत्व को चोट लगेगी। कहा भी है - ___“स्वभावतः उस में जो शक्ति या अशक्ति होगी उस को चोट पहुँचाने में कौन समर्थ है ? क्योंकि वह नित्य होने से किसी भी चिकित्सा के लिये अयोग्य है।" * सामान्य की वृत्ति पर स्थिति-अभिव्यक्ति के दो विकल्प * नित्य है इसीलिये सामान्य की व्यक्तियों में वृत्ति भी असंगत है। देखिये - वृत्ति अगर है तो स्थिति स्वरूप है या अभिव्यक्तिस्वरूप है ? स्थिति भी स्वस्वभाव से अप्रच्युतिस्वरूप है या अधोगति में रुकावट स्वरूप है ? यदि ‘स्वस्वभाव से अप्रच्युतिरूप स्थिति' यही व्यक्ति में सामान्य की वृत्ति हो तो यहाँ व्यक्ति की सापेक्षता और तत्प्रयुक्त आधाराधेयभाव को अवकाश ही नहीं है क्योंकि सामान्य नित्य होने से, अपने स्वभाव से अप्रच्युतिरूप स्थिति स्वतः सिद्ध है, उस के लिये व्यक्तिस्वरूप आधार अनावश्यक है। अधोगति में रुकावट स्वरूप स्थिति भी यहाँ असम्भव है क्योंकि सामान्य तो अमूर्त है एवं निष्क्रिय है इसलिये उस में जब अधोगमन ही संभव नहीं है तब उस में रुकावट रूप स्थिति की तो बात ही कहाँ ? अतः ऐसी स्थिति सम्भव न होने से व्यक्ति में सामान्य की वृत्ति सम्भवहीन है। __यदि ऐसा माना जाय कि 'समवाय' ही व्यक्तियों में सामान्य की स्थितिरूप वृत्ति है - तो नामंजूर है क्योंकि विचार करने पर वह भी घटती नहीं है - देखिये, आप का मन्तव्य ऐसा है - जो अयुत यानी अपृथक सिद्ध गुण-गुणवान क्रिया-क्रियावान आदि का आश्रयाश्रयिभावरूप सम्बन्ध है वही समवाय । जो 'यहाँ फल में रस है' इत्यादि प्रतीतियों में हेतु बनता है। - इसी के ऊपर तो यह विचार किया जा रहा है कि व्यक्तियों में सामान्य का आश्रितत्व, व्यक्ति से प्रतिबद्ध ही उस की स्थिति होने के कारण है या व्यक्ति से ही अभिव्यंग्यत्व होने के कारण है ? वास्तव में तो व्यक्ति और जाति दोनों परस्पर असंकीर्ण पदार्थ है अतः अकिञ्चित्कर अर्थान्तरभूत समवाय से उन का कोई सम्पर्क ही असम्भव है, यदि फिर भी उस को मानने का आग्रह हो तो प्रत्येक भाव का प्रत्येक भाव के साथ समवाय सम्बन्ध मानना पडेगा। कैसे यह देखिये - परस्पर व्यावृत्त द्रव्य-गुणादि के संयोजन करनेवाले पदार्थ के रूप में समवाय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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