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पञ्चमः खण्डः - का० ४९ सम्बन्धस्य निमित्तं भवत् तद्व्यङ्ग्यत्वं वा सामान्यस्य भवेत् तज्जन्यता वा, तद्ग्रहणापेक्षग्रहणता वा ? तत्र न तावद् व्यक्तिभियंग्यत्वात् सामान्यं ताभिः सम्बद्धम् परैरनुपकार्यस्य नित्यत्वात् सामान्यस्याऽविशेषतो व्यंग्यत्वानुपपत्तेः । यो हि यस्याऽनुपकार्यः स तस्याऽभिव्यंग्यो न भवति यथा हिमवान् विन्ध्यस्य, अनुपकार्यं सामान्य व्यक्तिभिः इति । अनुपकार्यस्यापि व्यंग्यत्वे सर्वः सर्वस्य व्यंग्यः स्यादित्यतिप्रसंगः। नापि तज्जन्यता तन्निबन्धनम् नित्यतयाऽभ्युपगतस्य तज्जन्यत्वाऽयोगात् केवलस्यापि ग्रहणाभ्युपगमाच्च। नापि तज्ज्ञानपारतन्त्र्यमपि तस्य सम्भवति तेन 'स्वाश्रयेन्द्रियसंनिकर्षापेक्षप्रतिपत्तिकं सामान्यम्' इत्युक्तमभिधानम् आश्रयस्याऽयोगात् तद्गतेन्द्रियसंनिकर्षाद्यपेक्षाया दूरोत्सारितत्वात् । न चास्य नित्यतया परैरनाधेयविशेषत्वात् क्वचिदपि अपेक्षा, अतो यदि तत्स्वविषयज्ञानोत्पादनसमर्थं तदा सर्वदैव तद् जनयेत् अथाऽसमर्थम् न कदाचिदपि जनयेत् । न हि समर्थम् असमर्थ वा तस्य तद्रूपं तत् केनचिदन्यथाकर्तुं शक्यम् नित्यत्वहानिप्रसंगात् । यदुक्तम् – ( ) का अध्यवसाय नही होगा क्योंकि व्यक्ति के विना ही केवल सामान्य प्रतीत होता है उस वक्त व्यक्ति मौजूद ही नहीं है। जब व्यक्ति मौजूद नहीं है तब ‘इतनी व्यक्तियों का यह सामान्य' इस प्रकार साधारणभूत से सामान्य की प्रतीति सम्भव न होने से व्यक्ति और सामान्य के सम्बन्ध की प्रतीति भी कैसे होगी ? आप के मत में सम्बन्धप्रयोजक निमित्त के विना तथाविध प्रतीति सम्भव नहीं है। कैसे यह देखिये - व्यक्ति से सामान्य व्यंग्य है अतः व्यक्तिव्यंग्यत्व जो सामान्य में है वह (१) व्यक्ति के साथ सामान्य सम्बन्ध का निमित्त हो सकता है ? या (२) सामान्य व्यक्ति से जन्य होने के कारण व्यक्तिजन्यत्व व्यक्ति के साथ सामान्य के सम्बन्ध का निमित्त हो सकता है? अथवा (३) सामान्य का ग्रहण व्यक्तिग्रहणसापेक्ष होने से व्यक्तिग्रहणसापेक्षग्रहणत्व यह सम्बन्ध का निमित्त होगा ? तीन में से कौन सा निमित्त होगा ? (१) व्यक्ति से व्यंग्य होने के कारण सामान्य व्यक्तिसम्बद्ध हो ऐसा मानना अयुक्त है, क्योंकि सामान्य नित्य होने से दूसरे के द्वारा उपकार किये जाने योग्य नहीं है, सर्वदा अविशिष्ट एक स्वरूप रहता है इसलिये वह किसी से व्यंग्य नहीं हो सकता। जो जिस का उपकारपात्र नहीं है वह उससे अभिव्यंग्य नहीं हो सकता, उदा० हिमवंत पर्वत विन्ध्य का उपकारपात्र न होने से उस का अभिव्यंग्य भी नहीं होता। सामान्य भी व्यक्तियों के एहसान से दबा हुआ नहीं है अतः वह उन से अभिव्यंग्य नहीं हो सकता। एहसान से दबा हुआ न होने पर भी किसी का व्यंग्य कोई माना जाय तो प्रत्येक भाव अन्य सभी भावों से व्यंग्य मान लेना होगा, यह अतिप्रसंग होगा।
(२) 'व्यक्ति से जन्य होने से सामान्य, व्यक्ति से सम्बन्ध हो' यह दूसरा पक्ष भी स्वीकृतिपात्र नहीं है, क्योंकि सामान्य नित्य माना गया है अतः वह किसी से भी जन्य नहीं हो सकता। दूसरी बात, केवल सामान्य का स्वतन्त्र ग्रहण (यहाँ यह पक्ष प्रवर्त्तमान है) पहले मान कर यह विचार चल रहा है इस लिये भी तज्जन्यत्व रूप निमित्त से सम्बन्ध होने की बात बुद्धिगम्य नहीं रहती। (३) तथा तीसरा पक्ष, व्यक्तिग्रहणसापेक्षग्रहणत्व भी सम्भव नहीं है क्योंकि नित्य पदार्थ किसी का भी परतन्त्र नहीं होता, अतः पहले जो किसीने कहा है कि सामान्य का ग्रहण अपने आश्रय के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष का सापेक्ष है - यह कथन भी युक्तिहीन है। उपरांत, जब नित्य पदार्थ का आश्रय भी कोई नहीं बन सकता तो आश्रय के साथ इन्द्रियसंनिकर्षादि की अपेक्षा की बात तो दूर हो जाती है। नित्य पदार्थ में दूसरे के द्वारा किसी भी संस्कार का आधान शक्य नहीं होता अतः उस को किसी की अपेक्षा रह नहीं सकती। फलतः यदि वह अपने विषय में ज्ञान को उत्पन्न करने में समर्थ होगा तो सर्वदा करता रहेगा, यदि असमर्थ होगा तो कभी भी उत्पन्न नहीं करेगा, किन्तु दूसरे की अपेक्षा का
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