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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् न चानुगतनिमित्ताभावेऽप्यस्य भावे प्रत्ययभेदकृता विषयभेदव्यवस्था न स्यादिति रूपादिप्रत्ययानामपि न स्वविषयव्यवस्थापकत्वं भवेदिति वक्तव्यम् अनुगतप्रत्ययस्याऽविशिष्टाभिलापत्वेन स्वलक्षणाऽविषयीकरणात् तद्व्यवस्थापकत्वाऽयोगात् यथासंकेतं तत्तद्व्यावृत्तिमादायैकत्रापि अनेकविरुद्धधर्माध्यवसायिविकल्पप्रसूतेरविरोधात्। ____ यदि चानुगतनिमितमन्तरेणानुगतप्रत्ययो न भवेत् इच्छाविरचितरूपेषु चन्द्रापीडादिभावे नष्टाऽ-जातेषु च महासम्मत-शंखचक्रवर्तिप्रभृतिषु कथं भवेत् ? न हि तत्रापि सामान्यसद्भावः, तस्य व्यक्त्याश्रितत्वात् तदभावे तस्याप्यभावात् । न ह्याश्रितानामयं धर्मः यदुत आश्रयाभावेऽपि केवलानामवस्थानम् अनाश्रितत्वप्रसंगात् केवलस्य वाऽवस्थाने ग्रहणप्रसक्तिरेवेति न नष्टाऽजातेषु अनुगताकारः प्रत्ययः सामान्यनिबन्धनः स्यात् इति अनेकान्त एव हेतोः। न च परेणाऽपि केवलस्य सामान्यस्य ग्रहणमभ्युपगम्यते। तथा चोक्तम् – 'स्वाश्रयेन्द्रियसंनिकर्षापेक्षप्रतिपत्तिकं सामान्यम् ।' ( ) इति । ___ केवलस्यापि च सामान्यस्य ग्रहणाभ्युपगमे सामान्यप्रत्ययस्य व्यक्त्यध्यवसायो न प्राप्नोति व्यक्तेस्तदानीमभावाद् 'व्यक्तीनामिदं सामान्यम्' इति सम्बन्धश्च न स्यात् निमित्ताभावात् । तथाहि - की व्यवस्था करने में असफल रहेगी।' – ऐसा मत कहिये, क्योंकि वास्तव में अनुगत प्रतीति आन्तर्जल्पात्मक अभिलाप से भिन्न नहीं होती, अभिलापात्मक होने से वह परमार्थतः सत्य स्वलक्षणात्मक वस्तुस्पर्शी नहीं होती इस लिये अनुगतप्रतीति से अपने काल्पनिक सामान्यात्मक वस्तु की व्यवस्था न हो यह इष्ट ही है। अनुगताकार प्रतीति और व्यवहार तो गो-अश्वआदि संकेतों के अनुसार अगोव्यावृत्ति और अनश्वव्यावृत्ति के आधार पर भी होने में कोई विरोध नहीं है। संकेत यानी पूर्ववासना के प्रभाव से एक ही वस्तु में व्यावृत्तिग्राहक एवं अनुवृत्तिग्राहक ऐसे अनेक विरुद्ध धर्माध्यवसायी विकल्पों के उद्भव में कोई विरोध या आश्चर्य नहीं है।
* अतीत-अनागत भावों में अनुगतप्रतीति पर प्रश्न * सामान्यवादी के सामने यह भी प्रश्न है – यदि अनुगतनिमित्त के विना अनुगतप्रतीति सम्भव नहीं है तो अपनी इच्छानुसार कादम्बरी आदि काव्यों में कल्पित चन्द्रापीड आदि पात्रों में तथा कालगर्ता में विलीन
महासम्मतादि चक्रवर्ती एवं अनागतकालभावी शंखादिचक्रवर्ती आदि में जो मनुष्यत्व-चक्रवर्तीत्वादि की अनगतप्रतीति होती है वह कैसे हो सकेगी ? यहाँ तो आप सामान्य तत्त्व की सत्ता को नहीं बता सकते क्योंकि व्यक्तियों का आश्रित सामान्य, व्यक्तियों के वर्तमान में विद्यमान न होने से, नहीं हो सकता। आश्रितों का ऐसा धर्म नहीं होता कि आश्रय के विरह में स्वयं अकेले विद्यमान रहें। यदि ऐसा शक्य होगा तो फिर उन को किसी के आश्रित मानने की कभी भी आवश्यकता नहीं रहेगी। तथा, आश्रय के विना यदि उस का केवल अवस्थान शक्य होगा तो व्यक्ति के ग्रहण विना भी उन का स्वतन्त्र ग्रहण प्रसक्त होगा। सारांश, विनष्ट एवं भावि पदार्थों में अनुगताकार प्रतीति सामान्यमूलक न होने से अनुगताकारप्रत्ययत्व हेतु यहाँ साध्यद्रोही ठहरता है। सामान्यवादी ने भी व्यक्तिनिरपेक्ष केवल सामान्य के ग्रहण को मंजूर नहीं रखा है। जैसे कि कहा गया है – 'सामान्य का भान, सामान्य के आश्रय के साथ इन्द्रिय संनिकर्ष को सापेक्ष होता है।'
* केवल सामान्य के ग्रहण की अनुपपत्ति * यह भी विचारणीय है कि यदि केवल सामान्य का ग्रहण माना जाय तो सामान्य की प्रतीति में व्यक्ति #. बौद्धसम्प्रदाय के 'महाव्युत्पत्ति' ग्रन्थ में चक्रवर्त्तियों के ६० नाम गिनाये हैं उन में प्रथम नाम ‘महासम्मत'
है (पं० सुखलाल आदि)
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