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________________ ___१७९ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ चाऽर्थान्तराश्लेषकारिणो भावान्तरस्य ‘समवायः' इति नामकरणेऽपि काचित् क्षतिः । न च श्लेषकरणात् समवायरूपत्वं संश्लेषस्य, संश्लिष्यमाणपदार्थेभ्यो भिन्नस्य करणे तैस्तस्य सम्बन्धाऽसिद्धेः, अभिन्नस्य करणे सामान्यादेः कार्यत्वेनाऽनित्यत्वप्रसक्तेः। तन्न सामान्यस्य व्यक्तिषु स्थितिवृत्तिः। नापि तदभिव्यक्तिलक्षणाऽसौ युक्ता। तथाहि – तद्विषयविज्ञानोत्पादनलक्षणा वा तदभिव्यक्तिः स्वरूपपरिपोषलक्षणा वा ? न तावत् स्वभावपरिपोषलक्षणा, नित्यस्य स्वभावाऽन्यथाकरणाऽसम्भवात् । नापि तद्विषयविज्ञानोत्पादनस्वरूपाऽसौ युक्ता, सामान्यस्य स्वत एव विज्ञानोत्पादनसामर्थ्य - भिव्यक्तिकारणापेक्षाऽयोगात् असामर्थेऽपि परैरनाधेयविशेषत्वात् सामान्यस्य तदपेक्षत्वानुपपत्तेः, परैराधेयविशेषत्वाभ्युपगमेऽप्यनित्यत्वप्रसक्तितो व्यक्तिवदसाधारणत्वात् सामान्यरूपताऽनुपपत्तेः, तेन सामान्यस्य व्यक्तिषु वृत्तिनिबन्धनाऽभावाद् अवृत्तिः। तथा च प्रयोगः, यस्मिन् यस्य वृत्तिनिबन्धनं नास्ति न तत्र तद् वर्त्तते, विन्ध्य इव हिमवान्, नास्ति च भेदेषु वृत्तिनिबन्धनं सामान्यस्येति व्यापकानुपलब्धिः। की कल्पना की गयी है, किन्तु अर्थान्तरभूत समवाय के होते हुए भी अपने स्वभाव में अवस्थित पदार्थ कभी एक दूसरे के गुणधर्मो को अपनाता नहीं है। सिर्फ एक भाव के साथ आश्लेषकारी अन्य भाव का ‘समवाय' ऐसा नामकरण कर दिया जाय तो क्या क्षति है ? एक-दूसरे का आश्लेष कोई अलग चीज हो और एक-दूसरे का आश्लेष कराने वाले को समवायात्मक कहा जाय तो उस में कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि संयुज्यमान पदार्थो से भिन्न ऐसे आश्लेष को मानने पर यह प्रश्न होगा कि उस आश्लेष का उन पदार्थो से कौन सा रिश्ता है ? उस का कोई सरल उत्तर नहीं। अभिन्न आश्लेष का करण माना जायेगा तो फलस्वरूप सामान्य का ही करण सिद्ध होने से उस में जन्यत्वप्रयुक्त अनित्यत्व का प्रसंग होगा। अतः निष्कर्ष यही फलित हुआ कि व्यक्ति में सामान्य की वृत्ति स्थितिस्वरूप नहीं घटती। * अभिव्यक्तिस्वरूप वृत्ति के दोनों विकल्प दुर्घट * अभिव्यक्तिस्वरूप वृत्ति का दूसरा पक्ष भी अयुक्त है। कैसे यह देखिये - सामान्य की अभिव्यक्ति यानी क्या सामान्यविषयक विज्ञान का उत्पादन समझना या Bसामान्य के स्वरूप का परिपोषणमात्र ? Bस्वभावपोषणमात्र घट नहीं सकता, क्योंकि नित्य पदार्थ अपने स्वरूप से परिपूर्ण होता है, अतः व्यक्ति के द्वारा स्वभावपोषण के नाम पर सामान्य के स्वभाव में यत्किञ्चित भी नया संस्कार या परिवर्तन किया जाना शक्य नहीं है। व्यक्ति के द्वारा सामान्य के विषय में ज्ञान का जनन-यह पहला पक्ष भी ठीक नहीं है क्योंकि सामान्य स्वयं ही स्वविषयक ज्ञान के जनन में समर्थ है और समर्थ को अपनी अभिव्यक्ति के लिये स्वभिन्न कारण की कोई अपेक्षा नहीं हो सकती। नित्य सामान्य में नया कोई अतिशयाधान शक्य न होने से, सामान्य यदि स्वविषयकज्ञानजनन के लिये असमर्थ होगा तो भी व्यक्ति की अपेक्षा नहीं करेगा, क्योंकि व्यक्ति के द्वारा नित्य पदार्थ पर कोई उपकार होनेवाला नहीं है। यदि सामान्य में व्यक्ति द्वारा किसी उपकारात्मक अतिशय के आधान को मंजूर करेंगे तो सामान्य को अनित्य मानने की विपदा होगी और अनित्य हो जाने पर व्यक्ति की तरह वह भी असाधारणस्वरूपधारी हो जाने से उस की सामान्यरूपता पलायन हो जायेगी। निष्कर्ष, व्यक्तियों में सामान्य की वृत्ति को स्थापित करनेवाला कोई साधन न होने से उस को अवृत्ति ही सिद्ध करना उचित है। जैसे प्रयोग देखिये - जिस में जिस की वृत्ति का स्थापक निमित्त नहीं है वह उस में वृत्ति नहीं होता। उदा० विन्ध्याचल में हिमालय की वृत्ति नहीं होती। भेदों में यानी व्यक्तियों में सामान्य की वृत्ति का स्थापक कोई निमित्त नहीं है अतः सामान्य की वृत्ति व्यक्तियों में नहीं हो सकती। – इस प्रयोग में वृत्ति (की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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