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________________ १७० श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् शब्देन किं पिण्डान्तरमश्वादिरूपमभिधीयते आहोस्विद् मूर्त्तद्रव्याभावः उताकाशादिप्रदेश इति विकल्पाः। यद्यश्वादिपिण्डान्तराभिधानं तदा तत्र गोत्वसामान्यस्यावृत्तेरग्रहणमुपपन्नमेव । न हि यद्यत्र नास्ति तत्तत्र गृह्यत इति परस्याभ्युपगमः। अथाकाशादिदेशस्तदा तत्रापि सामान्यस्याऽवृत्तेरग्रहणमेव। एवं मूर्तद्रव्याभावेऽपि अग्रहणमभावादेव । - इति दूषणाभिधानम् तदपि असंगतमेव, एवं दूषणाभिधाने सर्वत्र तदभिधानाऽनिवृत्तेः। तथाहि – 'घटद्वयान्तराले पटादिद्रव्यस्याग्रहणादभावः' इत्यत्रापि विकल्पौत(?कल्प्यैत) दोषाभिधानस्याभिधातुं शक्यत्वात् । अथ अत्र 'अन्तराल' शब्दस्य लोकप्रसिद्ध एवार्थः प्रकल्प्यते तर्हि एतदन्यत्रापि समानमिति न पर्यनुयोगावकाशः। किञ्च, यधुपलभ्यस्वभावं सामान्यमभ्युपगम्यते तदा सास्नाद्यवयवानामिव शाबलेयादौ तबुद्ध्या ग्रहणं स्यात्, अग्रहणात्तदसदित्यत्र - 'कि सास्नादिबुद्ध्याऽग्रहणात् सामान्यस्याऽसत्त्वम् आहोस्वित् स्वबुद्ध्येति कल्पनाद्वयम् । न तावत् सास्नादिबुद्ध्याऽगृह्यमाणत्वात्तस्याऽसत्त्वम् रूपादेरपि रसादिबुद्ध्याग्रहणादसत्त्वप्रसक्तेः। अथ स्वबुद्ध्याऽगृह्यमाणत्वादसत्त्वम् तदयुक्तम् विरोधात् । न हि सामान्यबुद्धिः सामान्यस्य चाग्राहिका इत्यभिधानमविरुद्धम् 'माता च मे वन्ध्या च' इत्यभिधानवत् । सकता है। अनेक न होने पर मध्यभाग में विच्छिन्न सामान्य सकल स्वव्यक्तियों से सम्बद्ध नहीं हो सकता । न्यायवार्त्तिककार ने जो कहा है - (सूत्र-२-२-६५ वार्तिक में) 'अन्तराल' शब्द से प्रतिवादी को क्या कहना है ? अश्वादिरूप पिण्डान्तर ? या मूलद्रव्याभाव ? अथवा आकाशादि का प्रदेश ? ये तीन प्रश्न विकल्प हैं। उन में से पहला यानी अश्वादिरूप पिण्डान्तर अर्थ लिया जाय तो उस में गोत्वसामान्य के न होने से उसकी अनुपलब्धि संगत है। हम भी ऐसा नहीं मानते कि जो जिस में नहीं है वहाँ वह गृहीत हो। आकाश के प्रदेश की बात में भी यही उत्तर है, उस में भी सामान्य (गोत्व) न होने से उसकी अनुपलब्धि संगत है। तथा, मूर्त्तद्रव्याभाव में भी गोत्वादि सामान्य नहीं रहता अतः वहाँ भी उसका ग्रहण नहीं होता। - इस प्रकार जो वार्त्तिककार ने अन्तराल में अनुपलब्धि का उपपादन किया है वह गलत है, क्योंकि अब तो प्रतिवादी पीतरूपादि अथवा वस्त्रादि को भी सामान्य की तरह सर्वत्र व्यापक मान सकता है। मतलब, सामान्य के प्रकरण में अन्तराल शब्द पर विकल्प करके दूषण आपादन करने पर पीतरूपादि अथवा वस्त्र की व्यापकता के लिये भी वैसा शक्य है। यदि पूछा जाय कि जब व्यापक है तो दो घटों के अन्तराल में क्यों वह उपलब्ध नहीं होता, उपलब्ध न होने से उसका वहाँ अभाव है - तो उसके जवाब में भी कहेंगे कि 'अन्तराल' शब्द से क्या अभिप्रेत है पिण्डान्तर, आकाश या मूर्त्तद्रव्याभाव... इत्यादि। यदि कहा जाय कि - 'वस्त्र प्रकरण में ‘अन्तराल' शब्द से जो लोकप्रसिद्ध अर्थ है वही अभिप्रेत है न कि पिण्डान्तरादि' - तो फिर सामान्यप्रकरण में समान है। अतः आप को कुछ भी प्रतिवाद के लिये अवकाश नहीं है। ___* अनुगताकार बुद्धि भी सामान्य की ग्राहक नहीं क्यों ? * सामान्य के विरोध में जो यह किसीने कहा है कि सामान्य को उपलब्धियोग्यस्वभाववाला मानने पर शबलवर्णादि में उसकी बुद्धि से उसका ग्रहण होना चाहिये जैसे गलगुदडी आदि अवयवों का उस में ग्रहण होता है, सामान्य का इस तरह ग्रहण नहीं होता इसलिये वह असत् है - इस के प्रतिकार में सामान्यवादी ऐसा विकल्प करता है - कि सामान्य को असत् क्यों कहते हैं, गलगुदडी आदि की बुद्धि से अगृहीत होने के कारण या सामान्य की बुद्धि से अगृहीत होने के कारण ? गलगुदडी की बुद्धि से अगृहीत होने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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