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________________ पञ्चमः खण्डः १६९ इत्यनुगताकारप्रत्ययस्य प्रागभावादिष्वभावप्रत्ययवत् सामान्यसम्बन्धमन्तरेणाऽपि सिद्धत्वात् । किञ्च, पिण्डेभ्यो व्यतिरिक्तं यद्यनुस्यूतमेकं सामान्यमभ्युपगम्येत तदैकपिण्डोपलम्भे तस्याविभक्तत्वात् पिण्डान्तरालेऽप्युपलब्धिः स्यात् । न हि तस्यैकत्राभिव्यक्तस्यान्यत्रानभिव्यक्तस्वरूपता, विरुद्धधर्माध्यासतो भेदप्रसक्तेः। तथाप्यभेदे न किञ्चिद्भिन्नं स्यादिति सर्वत्र भेदव्यवहारनिवृत्तेः तदपेक्षस्याभेदव्यवहारस्यापि विरहात् सर्वाभावप्रसक्तिः । अथान्तराले संयुक्तसमवायसम्बन्धस्योपलम्भहेतोश्चक्षुषोऽभावादनुपलम्भः। असदेतत् तत्र तत्सद्भावे प्रमाणाभावात् । यदि हि पिण्डद्वयान्तराले सामान्यस्य कुतश्चित् प्रमाणात् सद्भावः सिद्धः स्यात् तदाऽग्रहणनिमित्तं यथोपवर्णितमुपपद्येताऽपि न च तत्सद्भावः सिद्ध इत्यसकृदावेदितम् । 7 न च स्वव्यक्तिसर्वगतत्वात् सामान्यस्याऽयमदोषः, अन्तराले तस्याभावे स्वव्यक्तिषु च सद्भावेऽनेकत्वप्रसक्तेः तदन्तरेणाऽन्तराले विच्छिन्नस्य सकलस्वव्यक्तिसम्बद्धत्वाऽनुपपत्तेः । यदपि - अत्रान्तरालवस्तु में वार्त्तिककार की ओर से जो दोषपरम्परा का निदर्शन किया गया है वह अनुचित है। : प्रतिवादी ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि सामान्यसम्बन्ध के न होने पर भी प्रमाणवादि में अनुगताकार अभावप्रतीति होती है वह आप भी मानते हैं, अतः 'गाय गाय' ऐसी अनुगताकार प्रतीति भी गोत्वादि सामान्य के सम्बन्ध के विना ही होती है यह अनायास सिद्ध हो सकता I दूसरी बात, यदि पिण्डों में अनुगत किन्तु उन से पृथक् ऐसा एक सामान्य माना जाय तो सभी सजातीय पिण्डों में एक ही सामान्य अनुगत होने की स्थिति में जब एक पिण्ड में सामान्य की अभिव्यक्ति होगी तो दो सामान्य पिण्डों के मध्य देश में भी उसकी अभिव्यक्ति यानी उपलब्धि हो जाने का अतिप्रसंग होगा । ऐसा नहीं कह सकते कि वह पिण्डदेश में अभिव्यक्त है किन्तु अन्तराल ( = मध्य) भाग में अनभिव्यक्त है। यदि ऐसा कहेंगे तो विरुद्धधर्मसमावेशभय से भेद प्रसक्त होगा । विरुद्धधर्म समावेश के बावजुद भी अभेद मानेंगे तो सर्वत्र भेद का उच्छेद हो जायेगा, फलतः भेदव्यवहार की कथा ही समाप्त हो जायेगी और प्रतियोगीरूप भेद का उच्छेद होने पर भेदसापेक्ष अभेदव्यवहार की कथा भी शून्य हो जाने से सर्वशून्यतावाद प्राप्त होगा । यदि यह कहा जाय दो पिण्डों के बीच सामान्य के रहते हुए भी उसके साथ चक्षु का संयुक्तसमवायात्मक सम्पर्क नहीं है जो कि उसका उपलम्भक है, अतः सम्पर्क के विरह में उसकी उपलब्धि नहीं होती । तो यह गलत बात है, क्योंकि जब, कभी भी वहाँ उसकी उपलब्धि नहीं होती तो वहाँ उसके होने में कोई प्रमाण ही नहीं है। हाँ, दो पिण्डों के मध्यभाग में किसी अन्य प्रमाण से उसका सद्भाव सिद्ध होता तो उसकी अनुपलब्धि का आपने जो निमित्त बताया (सम्पर्कविरह) वह घट सकता था, किन्तु उस का मध्यभाग में सद्भाव ही सिद्ध नहीं है यह तो कई बार कह दिया है । * स्वव्यक्तिव्यापक सामान्य के पक्ष में एकत्वभंग * - यदि कहा जाय कि ‘सामान्य को सर्वगत मानने पर तथाकथित पूर्वोक्त दोष सम्भव है किन्तु सिर्फ अपने आधारभूत सर्वव्यक्तियों में व्यापक मानने पर मध्यभाग में अभिव्यक्ति आदि का सवाल नहीं रहता । ' तो यह ठीक नहीं, क्योंकि यदि इस तरह मध्यभाग में उसके अभाव और सर्वव्यक्ति में ही सद्भाव का स्वीकार करेंगे तो उसमें व्यक्तिभेद से अनेकत्व प्राप्त होगा, यानी एक एक व्यक्ति में भिन्न भिन्न सामान्य मानना होगा, क्योंकि अनेक होने पर ही वह मध्यभाग में न रहे और सकल व्यक्ति में रहे ऐसा बन — Jain Educationa International - -- - का० ४९ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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