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________________ १६८ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् न च प्राक्तनाधाराऽपरित्यागेऽप्याधारान्तरसंक्रमः सर्पादेरिव सामान्यस्य भविष्यतीति वक्तव्यम्, सामान्यस्यामूर्त्तत्वाभ्युपगमात् अमूर्त्तस्य च रूपादिवद् गमनाऽसम्भवात् । न च सर्पवत् पूर्वाधाराऽपरित्यागेनाधारान्तरक्रोडीकरणे सामान्यरूपता, सदेशस्य घटवत् सामान्यरूपतानुपपत्तेः । न च पिण्डोत्पत्तेः प्राक् तद्देशे तस्यावस्थानादुत्पद्यमाने पिण्डे तस्य वृत्तिरित्यभ्युपगमोऽपि युक्तः, निराधारस्य सामान्यस्य तत्रावस्थानाऽसम्भवात् अवस्थाने वाऽऽकाशवत् सामान्यरूपताविरहात् । न च पिण्डेनैव सहोत्पद्यते इति पक्षप्रकल्पनाऽपि संगता, उत्पत्तिमत्त्वेन तस्यानित्यताप्रसक्तेः अनित्यस्य च ज्वालादिवत् सामान्यरूपताऽयोगात् । न च शाबलेयादिपिण्डस्य सामान्यसम्बन्धविकलस्यैव परेणाऽवस्थानभ्युपगतम् । इति सामान्यप्रकल्पना अनेकदोषदुष्टत्वादसंगतैव । तदुक्तम् - न याति न च तत्रासीदस्ति पश्चान्न वांऽशवत् । जहाति पूर्वं नाधारमहो ! व्यसनसन्ततिः ।। ( तथा, यत्रासौ वर्त्तते भावस्तेन सम्बध्यते न च । तद्देशिनं च व्याप्नोति किमप्येतद् महाद्भुतम् ।। ( ) न च, गमनादिधर्मविकलस्यापि सामान्यस्योत्पद्यमानपिण्डसम्बन्धो 'गौः गौः' इत्यनुस्यूताकारप्रत्ययात् प्रतीयत एवेति प्रमाणप्रतिपन्ने वस्तुनि विरोधाद्युद्भावनमसंगतमेवेति वाच्यम्, 'गौः - गौः ' क्योंकि मूर्त्त पदार्थ ही गतिशील होता है, अमूर्त्त रूपादि गतिशील नहीं होते अतः अमूर्त्त होने से सामान्य भी एक पिण्ड से दूसरे पिण्ड में साँप की तरह जा नहीं सकता। दूसरी बात यह है कि साँप की तरह पूर्वतन आधार को छोडे बिना नये आधार में संक्रान्त होनेवाले पदार्थ में सामान्यरूपता घट नहीं सकती । तीसरा विकल्प पिण्डोत्पत्ति के पहले उस देश में बिना आधार के विद्यमान सामान्य उत्पन्न होने वाले पिण्ड में संक्रान्त हो जाता है ऐसी मान्यता भी अनुचित है, क्योंकि आधार के विना पिण्डोत्पत्ति के पूर्व उस देश में सामान्य का अवस्थान सम्भव नहीं है। फिर भी यदि किसी तरह उस की उपस्थिति मानेंगे तो आकाश की तरह वह भी सामान्यरूप नहीं हो सकता । पिण्ड के साथ ही सामान्य भी उत्पन्न हो जाय ऐसा नया विकल्प भी असंगत है, क्योंकि उत्पत्तिशील होने से उस को अनित्य मानना पडेगा और ज्वाला - अग्नि आदि की तरह अनित्य वस्तु में सामान्यरूपता सम्भव नहीं है। आखिर इतने दोषों से उब कर भी, सामान्य के योग से रहित ही शबलवर्णादिपिण्डों का अवस्थान स्वीकारने के लिये आप की तय्यारी नहीं है । निष्कर्ष, अनेक दोषों से दूषित होने के कारण सामान्य की कल्पना अयुक्त है प्रमाणवार्त्तिक में कहा गया है - * सामान्य के विना भी अभाव में अनुगताकारप्रतीति 'न गमन करता है, न तो वहाँ पहले था, पीछे से सम्बद्ध हो जाता है किन्तु निरंश है, पूर्व आधार को छोड़ता भी नहीं है जातिदूषणों की शृंखला आश्चर्यकारक है । ' ‘पिण्ड जिस देश में वर्त्तमान होता है वहाँ तो यह (सामान्य) होता नहीं, फिर भी उस देश के पिण्ड में व्याप्त हो जाता है यह कोई महान् आश्चर्य है।' Jain Educationa International ) - सामान्यवादी :- सामान्य में गतिशीलतादि धर्म घटते नहीं है, फिर भी 'गाय - गाय' इस अनुगताकार प्रति से इतना तो स्पष्ट सिद्ध होता है कि उत्पन्न हो रहे पिण्ड के साथ सामान्य का सम्बन्ध मौजुद है । अतः प्रमाणसिद्ध For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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