________________
पञ्चमः खण्डः - का० ४९
१६७ आहोस्विदनुत्पन्ने उत उत्पद्यमाने इति विकल्पाः। न तावदनुत्पन्ने तदा पिण्डस्याऽसत्त्वात् । नाप्युत्पन्ने, अगोरूपेऽश्वपिण्ड इव तत्र तस्य वृत्त्ययोगात् इत्युक्तत्वात् । नाप्युत्पद्यमाने, अनिष्पन्नस्याधारत्वायोगात् । विद्यमानस्वरूपाणामेव कुण्डबदराणामाश्रयाश्रयिभावदर्शनात् । अतो ‘य एव पिण्डोत्पत्तिकालः स एव तत्सामान्यसम्बन्धकाल' इत्ययुक्तमन्यत्रैवमदर्शनात् ।
किञ्च, उत्पद्यमानेन पिण्डेन सह सामान्यं सम्बध्यमानं किमन्यत आगत्य सम्बध्यते उत पिण्डेन सहोत्पादात् आहोस्वित् पिण्डोत्पत्तेः प्रागेव तद्देशावस्थानात् इति विकल्पाः। तत्र न तावद् अन्यत आगत्य सम्बध्यत इति पक्षः आश्रयितुं युक्तः, यतः प्राक्तनपिण्डपरित्यागेन तत् तत्रागच्छति उताऽपरित्यागेनेति वाच्यम् । यदि परित्यागेनेति पक्षः स न युक्तः प्राक्तनपिण्डस्य गोत्वपरित्यक्तस्यागोरूपताप्रसक्तेः। अथापरित्यागेन तदाऽपरित्यक्तप्राक्तनपिण्डस्य निरंशस्य रूपादेरिव गमनाऽसम्भवः । न ह्यपरित्यक्तप्राक्तनाधाराणां रूपादीनामाधारान्तरसंक्रान्तिः क्वचिदप्युपलब्धा ।
* उत्पन्न-अनुत्पन्न-उत्पद्यमान पिण्डों में सामान्य कैसे ? * सामान्य इस तरह भी चर्चास्पद है - सामान्य कहाँ रहता है ? उत्पन्न पिण्ड में, अनुत्पन्न पिण्ड में या उत्पन्न हो रहे पिण्ड में ? अनुत्पन्न दशा में जब पिण्ड स्वयं ही असत् है तो उसमें किसी के रहने की बात ही नहीं है। उत्पन्न पिण्ड में भी नहीं हो सकता, क्योंकि जैसे अगोस्वरूप - उत्पन्न अश्वपिण्ड में वह सम्बन्ध नहीं करता वैसे गो-पिण्ड में भी नहीं कर सकता यह पहले ही कहा जा चुका है। उत्पन्न हुआ नहीं है किन्तु जो उत्पन्न हो रहा है ऐसे पिण्ड में भी वह नहीं रह सकता, क्योंकि जो अपने स्वरूप से अपूर्ण है वह किसी का आधार नहीं बन सकता। जो पूर्णस्वरूप से विद्यमान पिण्ड हैं उन में ही कुण्ड और बदर की तरह आश्रयाश्रयिभाव दृष्टिगोचर होता है। इस से यह फलित हो जाता है कि - 'जो पिण्ड का उत्पत्तिकाल है वही उसमें सामान्य का सम्बन्धकाल है'- यह वचन भी असार है, क्योंकि अन्यत्र कहीं भी अपूर्णरूप से उत्पन्न पदार्थ में अन्य पदार्थ का सम्बन्ध प्रसिद्ध नहीं है।
* उत्पद्यमान व्यक्ति के साथ सामान्य कैसे जुटेगा ? * सामान्य के बारे में यह एक रसप्रद चर्चा है – उत्पन्न होनेवाले पिण्ड के साथ सम्बद्ध होने वाला सामान्य क्या अन्यत्र कहीं से आ कर सम्बद्ध होता है या उसी पिण्ड के साथ उत्पन्न हो कर सम्बद्ध होता है ? अथवा पिण्डोत्पत्ति के पहले ही वहाँ वह मौजुद रहता है ? तीन विकल्प हैं। प्रथम विकल्प-अन्यत्र कहीं से आ कर सम्बद्ध होना यह पक्ष युक्त नहीं है, क्योंकि यहाँ नये दो प्रश्न हैं - पूर्वोत्पन्न पिण्ड को छोड कर वह इस पिण्ड में आता है या विना छोड के ? छोड कर आता है यह प्रश्न अयुक्त है क्योंकि गोत्व से बिछडा हुआ पूर्वोत्पन्न पिण्ड तब ‘अगो'आत्मक हो जाने का प्रसंग खडा होगा। पूर्वोत्पन्न पिण्ड को बिना छोड के तो वह इस पिण्ड में नहीं आ सकता क्योंकि रूपादि की तरह निरंश सामान्य गतिशील नहीं है। पूर्वाधार को न छोडने वाले रूपादि अन्य किसी आधार में संक्रान्त हो जाय ऐसा कहीं भी नहीं देखा।
* सर्पवत् सामान्य का संक्रम असंभव * ___ यदि ऐसा कहा जाय – सर्प जैसे पूर्वाधार को बिना छोडे ही लम्बा हो कर अन्याधार में पहुँचता है इस तरह सामान्य का पूर्वतन पिण्ड से अन्य पिण्ड में संक्रम हो सकेगा। - तो यह ठीक नहीं है,
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org