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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् समवायस्वरूपं सिद्धम् तच्च विद्यत एव समवायस्य प्रमाणतः सिद्धेः । तन्न प्रसङ्गसाधनमेतत् । स्वतन्त्रं तु साधनं न भवति सामान्यलक्षणस्य धर्मिणोऽसिद्धेहेतोराश्रयासिद्धिप्रसङ्गात्, धर्मिसिद्धौ वा तत्प्रतिपादकप्रमाणबाधितत्वात् तदभावसाधकप्रमाणस्य अप्रतिपत्तिरेव इत्यभिधानम् तदप्यसंगतम्, यतो नाऽस्माभिः किञ्चिदत्र सामान्यस्य साध्यते किन्तु येन सामान्य व्यक्त्याश्रितमभ्युपगम्यते तेन तत्र तस्यैकदेशेन सर्वात्मना वा-अन्यथा वृत्तेरसम्भवात्-वृत्तिर्वाच्या ।
अथ समवायलक्षणा वृत्तिस्तत्र तस्योक्तैव । न, तस्याः स्वरूपाऽनिर्देशात् । अथाश्रयाश्रयिभावस्तस्याः स्वरूपम् । न, अस्य पर्यायमात्रत्वात्, वृत्तिमात्रम् समवायः आश्रयाश्रयिभावः इति च पर्यायशब्दा एते, न तु कात्स्न्यै कदेशवृत्तिव्यतिरेकेण लोकप्रसिद्धापरवृत्तिप्रदर्शनं कृतम् । या तु समवायलक्षणा स्वशास्त्रपरिभाषिता वृत्तिः सा तु तद्ग्राहकप्रमाणाभावात् सामान्यवदसिद्धस्वरूपैव। यदि च पिण्डेभ्यो व्यतिरिक्तम् कुण्डव्यतिरिक्तबदरवत् सामान्यं प्रमाणत उपलभ्यते तदा तेषु तस्य वृत्तिप्रकल्पना स्यात्, न च तत् तथोपलभ्यत इत्युक्तं प्राक् । अपि च उत्पन्ने पिण्डे सामान्यं वर्तते निरर्थक है। हमारे मत में तो समवायात्मक वृत्ति प्रसिद्ध है जो प्रमाणसिद्ध है और सामान्य के लिये वही वृत्ति विद्यमान है। अतः अनिष्टापादन अशक्य है। स्वतन्त्रसाधन भी आप नहीं कर सकते, क्योंकि सामान्यरूप धर्मी ही आप के मत में प्रसिद्ध नहीं है अतः उस में वृत्ति-अभाव को या उस के अभाव को सिद्ध करने के लिये जिस हेतु का प्रयोग करेंगे वह आश्रयासिद्ध हो जायेगा। यदि आप के मत में सामान्यात्मक धर्मी सिद्ध है, तब तो उसके साधक प्रमाण से ही उस के अभाव का प्रतिपादक प्रमाण बाधित हो जाने से, उस की प्रवृत्ति रुक जायेगी।" - यह पूरा प्रश्न असंगत है क्योंकि हम यहाँ सामान्य के किसी भी धर्म की सिद्धि नहीं करना चाहते किन्तु इतना ही कहना चाहते हैं कि वृत्ति के दो से अधिक विकल्प नहीं होते। एक देश से और सम्पूर्णरूप से - ये दो ही विकल्प हैं। अतः जो लोग सामान्य को व्यक्ति में वृत्ति यानी आश्रित मानते हैं उन लोगों की ओर से यह स्पष्ट करना जरूरी है कि सामान्य व्यक्ति में एक देश से आश्रित है या सम्पूर्णतया ? यदि दों में से एक भी विकल्प नहीं घटता, तो सामान्यरूप आश्रित की कल्पना निरर्थक बन जायेगी।
* समवायात्मक वृत्ति के स्वरूप पर प्रश्न * आपने समवायस्वरूप वृत्ति का निदर्शन किया है लेकिन समवाय के स्वरूप के बारे में कुछ भी निर्देश नहीं किया है। आश्रयाश्रयिभाव ही यदि समवाय का स्वरूप दिखाया जाय तो वह स्वरूपनिर्देश नहीं किन्तु पर्यायवाची शब्दान्तरमात्र का निर्देश हुआ। वृत्तिमात्र या समवाय या आश्रयाश्रयिभाव ये शब्द पर्यायवाची हैं, इन से सम्पूर्ण-एकदेश विकल्पों के अतिरिक्त किसी लोकप्रसिद्ध वृत्ति का निर्देश ('समवाय' शब्द के प्रयोग से) नहीं हो जाता। न्याय-वैशेषिकदर्शन में परिभाषित जो स्वतन्त्र ‘समवाय'संज्ञक वृत्ति दिखायी जाती है वह तो सामान्य की तरह ही प्रसिद्ध है, क्योंकि उस के सत्त्व का प्रदर्शक कोई प्रमाण नहीं है। तथा, जैसे कि कुण्ड से बेर पृथक् होता है वैसे पिण्डों से पृथक् सामान्य प्रमाण से उपलब्ध होता तब तो पिण्डों में सामान्य के लिये समवायरूप वृत्ति की कल्पना उचित कही जाती, किन्तु पहले ही कह दिया है कि 'सामान्य' प्रमाण से उपलब्ध नहीं है।
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