SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ १७१ न चानुगताकारबुद्ध्या सामान्यं न गृह्यते, व्यावृत्तबुद्धेरपि विशेष प्रत्यग्राहकत्वप्रसक्तेः। अतः 'तद्बुद्ध्याऽगृह्यमाणत्वादसत् सामान्यमित्ययुक्तम्' – इत्यप्यभिधानमसंगतम् यतो भवदभिप्रायेण समानाकारशाबलेयादिबुद्धिः सामान्यबुद्धिः तया च देश-कालव्यापि सामान्यं न गृह्यते तथाभूतस्य बुद्ध्यजनकत्वेन तद्ग्राह्यत्वायोगात् । अत एवानुगताकारबुद्धेरव्यापकक्षणिकशाबलेयादिपदार्थप्रभवत्वात् तद्ग्राहकत्वमेव न सामान्यग्राहकत्वम् । ___किञ्च, अक्षणिकव्यापकैकस्वभावत्वे सामान्यस्य किं येनैव स्वभावेनैकस्मिन् पिण्डे वर्त्तते सामान्य तेनैव पिण्डान्तरे आहोस्वित् स्वभावान्तरेण ? यदि तेनैव ततः सर्वपिण्डानामेकत्वप्रसक्तिः एकदेशकालस्वभावनियतपिण्डवृत्त्यभिन्नसामान्यस्वभावक्रोडीकृतत्वात् सर्वपिण्डानाम् प्रतिनियतदेश-कालस्वभावैकपिण्डवत् । अथ स्वभावान्तरेण, तदाऽनेकस्वभावयोगात् सामान्यस्यानेकत्वप्रसक्तिः, स्वभावमात्र से सामान्य को असत् मानना उचित है क्योंकि ऐसा मानने पर, रसादि की बुद्धि से अगृहीत होनेवाले रूपादि को भी असत् कहना पडेगा। यदि सामान्यबुद्धि से अगृहीत होने के कारण सामान्य को असत् माना जाय तो यह भी अनुचित है क्योंकि स्पष्ट विरोध खडा है। 'सामान्य की बुद्धि और उस से सामान्य का अग्रहण' यह बात विरोधशून्य नहीं हो सकती. जैसे 'यह मेरी माता वन्ध्या है' यह बात । 'अनुगताकारबुद्धि से सामान्य गृहीत नहीं होता' ऐसा नहीं मान सकते अन्यथा व्यावृत्ताकारबुद्धि में भी विशेषों की अग्राहकता का प्रसंग आ पडेगा। सारांश, सामान्यबुद्धि से सामान्य गृहीत नहीं होता यह विधान अनुचित है। - सामान्यवादी का यह दीर्घ विकल्पविधान संगत नहीं है। कारण, सामान्यवादी के अभिप्रायानुसार जो समानाकार शबलवर्णादि की बुद्धि है (जिस को वह सामान्यग्राहकबुद्धि मानता है) उससे (समानाकार शबलवर्णादि गृहीत होता है किन्तु) कभी भी देश-कालव्यापक 'सामान्य' तत्त्व का ग्रहण नहीं होता। देश-काल व्यापक 'सामान्य' तत्त्व तदाकारबुद्धि का जनक न होने से वह उस बुद्धि का ग्राहक नहीं माना जा सकता। यही कारण है कि अनुगताकारबुद्धि अव्यापक एवं क्षणिक ऐसे शबलवर्णादिपदार्थ द्वारा जन्य होने से उस की ग्राहक तो है किन्तु व्यापक सामान्य की ग्राहक नहीं है। * पिण्ड-पिण्डान्तर वृत्तिप्रयोजक स्वभाव पर प्रश्न * सामान्य को नित्य और व्यापक एकमात्र स्वरूपवाला माना गया है वहाँ प्रश्न है कि एक सामान्य जिस स्वभाव से एक पिण्ड में रहता है क्या उसी स्वभाव से अन्य पिण्ड में रहता है या अन्य स्वभाव से ? यदि उसी स्वभाव से रहने का माना जाय तो सकल पिण्डों में एकत्व हो जायेगा क्योंकि वे सर्व पिण्ड देश-काल-स्वभाव से नियत किसी एक पिण्ड में रहनेवाले उसी सामान्य से घेर लिये गये हैं। जैसे नियत देश-काल और स्वभाववाले दो पिण्डों में भेद नहीं होता वैसा ही यहाँ भी समझिये। क और ख पिण्ड यदि नियत देश-काल में नियत एक स्वभावयुक्त होता है तो क और ख अभिन्न होता है। वैसे यहाँ यदि सामान्य समान देश-काल-स्वभाव से क, ख, ग आदि पिण्डों में रहता है तो उसका मतलब यह होगा कि क-ख-ग आदि पिण्डों में भेद नहीं है। यदि कहा जाय कि सामान्य अन्य स्वभाव से अन्य पिण्ड में रहता है, तो अनेक स्वभाव के प्रवेश से सामान्य में भी अनेकत्व प्रसक्त होगा। स्वभावभेद हरहमेश वस्तुभेदक माना गया है, यदि स्वभावभेद होने पर वस्तु में भेद मंजूर नहीं करेंगे तो सर्वथा भेदोच्छेद प्रसक्त होगा। यह भी युक्ति संगत नहीं है कि एक हो कर अनेक में रहे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy